imagesimagesimagesimages
Home >> सम्पादकीय >> कारपोरेट पूँजीवादी मीडिया का वर्चस्व और क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया की चुनौतियाँ

कारपोरेट पूँजीवादी मीडिया का वर्चस्व और क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया की चुनौतियाँ

TPSG

Friday, May 17, 2019, 08:12 AM
Media

कारपोरेट पूँजीवादी मीडिया का वर्चस्व और क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया की चुनौतियाँ
पूँजीवाद अपने से पहले आयी तमाम शोषणकारी व्यवस्थाओं से कई मायनों में भिन्न है। आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर तमाम भिन्नताओं के साथ-साथ एक बड़ा फर्क यह है कि पूँजीवाद के तहत शोषक-उत्पीड़क वर्गों का शासन एकतरफा प्रभुत्व पर नहीं, बल्कि वर्चस्व पर आधारित होता है। प्रभुत्व और वर्चस्व के बीच के फर्क को ग्राम्शी ने स्पष्ट किया था। प्रभुत्व पर आधारित शासन शासित जनता से ‘सहमति’ नहीं लेता और यह अपना वैधीकरण किसी दिव्य शक्ति से ग्रहण करता है। मिसाल के तौर पर, सामन्ती समाज या अन्य प्रा-पूँजीवादी समाजों में शासक वर्गों के शासन का वैधीकरण ईश्वर-प्रदत्त होता था। राजा या सामन्त ईश्वर की छाया होता था और ईश्वर उसके मुख से बोलता था। लेकिन जब पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया तो उसने मानव-केन्द्रित समाज, सेक्युलरिज्म (धर्म-निरपेक्षता वाले अर्थ में नहीं, बल्कि इहलौकिकता वाले अर्थ में), मानवतावाद आदि का नारा दिया। बुर्जुआ विचारों के पहले प्रस्फुटन, यानी पुनर्जागरण में ये ही स्वर प्रधान थे। उसके बाद धार्मिक सुधार आन्दोलन और प्रबोधन के दौरों में यह सिलसिला आगे बढ़ा और अब वाणिज्यिक से औद्योगिक प्रकृति ग्रहण कर रहे पूँजीपति वर्ग के दार्शनिकों ने तार्किकता और विज्ञान का बैनर उठाया। पूँजीवादी दार्शनिकों ने एक आदर्श समानतापूर्ण, भ्रातृत्वपूर्ण और स्वतन्त्रता वाली दुनिया का सपना देखा। प्रथम पूँजीवादी क्रान्तियों के बाद पूँजीपति वर्ग ने इस नारे पर इस तरह अमल किया कि समानता न्याय के समक्ष औपचारिक समानता, भाईचारा पूँजीपतियों का भाईचारा और स्वतन्त्रता मुनाफा कमाने और अपनी श्रमशक्ति बेचने की स्वतन्त्रता में तब्दील हो गयी। निश्चित तौर पर, प्रबोधनकालीन दार्शनिकों का क्रान्तिकारी चिन्तन समानतामूलक समाज के एक यूरोपियाई आदर्शीकृत छवि से आगे नहीं जा सकता था, लेकिन इस छवि को चिन्तन के गर्भ में ग्रहण करना ही एक बड़ी क्रान्ति थी। पूँजीपति वर्ग ने अपने छल और फरेब को 1848 की यूरोपीय क्रान्तियों में उघाड़कर रख दिया। लेकिन इसके बावजूद पूँजीवादी समाज सामन्ती उत्पीड़न और दमन के बरक्स एक प्रगतिशील कदम था। आर्थिकेतर शोषण-उत्पीड़न की जगह अब पूँजीवादी आर्थिक शोषण ने ले ली थी। कम-से-कम औपचारिक तौर पर राजनीतिक स्वतन्त्रता, अभिव्यक्ति और संगठन का अधिकार जनता को मिला। यह दीगर बात है कि बढ़ती आर्थिक असमानता वाले मुनाफा-केन्द्रित समाज में इस कानूनी समानता और स्वतन्त्रता का कोई मतलब नहीं रह जाता है। यद्यपि, पूँजीवादी शासकों का यह दावा था कि वह जनता से सहमति लेकर शासन करते हैं। पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र के राजनीतिक रूप के तहत चुनावों में शासकों का फैसला होना था। चूँकि शोषकों को अपने शासन का वैधीकरण अब जनता से वोटों के रूप में और चुनावों की प्रक्रिया में हासिल करना था, इसलिए जनता के बीच राय के निर्माण का बड़ा महत्त्व हो गया। पूँजीपति वर्ग का शासन किसी दिव्य रूप से प्रदत्त वैधीकरण पर नहीं बल्कि जनता की ‘सहमति’ पर आधारित था। यहीं पर ग्राम्शी अपने वर्चस्व (हेजेमनी) की अवधारणा को लाते हैं। चूँकि अब शोषकों को जनता से सहमति हासिल करनी थी, इसलिए सहमति का निर्माण करना भी जरूरी हो गया था और साथ ही जरूरी हो गया था, सहमति का निर्माण करने वाले उपकरणों का होना।
यह कोई इत्तेफाक नहीं था कि प्रिण्टिंग प्रेस का आविष्कार 1440 में हुआ और पहली बार लिखित सामग्री का मास उत्पादन, वितरण और विसरण सम्भव हुआय यह भी कोई संयोग नहीं था कि पहला अखबार 1605 में जर्मनी में निकलना शुरू हुआ। इतिहास में ऐसी युगान्तरकारी घटनाओं के घटने में संयोग से केवल कुछ दशकों का फर्क हो सकता है, कई सौ या हजार सालों का नहीं। मानवता उन्हीं प्रश्नों पर सोचती है जो प्रश्न उसके युग के जीवित प्रश्न होते हैं। जैसा कि मार्क्स ने कहा था। मनुष्य अपने लिए वही लक्ष्य निर्धारित करता है, जिसे वह प्राप्त कर सकता है। प्रेस और अखबार की शुरुआत 15वीं से 17वीं सदी के बीच होती है, तो यह इस पूरे युग के बारे में बहुत कुछ बयान करती है। उभरते बर्गरों और फिर उनकी सन्तानों ने चर्च और सामन्तवाद की बेड़ियों के विरुद्ध जो संघर्ष शुरू किया उसमें इस प्रकार के माध्यमों की ईजाद स्वाभाविक थी। 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राजनीतिक पर्चों, पुस्तिकाओं और पुस्तकों की संस्कृति यूरोप में मजबूती से पाँव जमाने लगी थी। प्रथम पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों के बाद भी अखघ्बारों, पुस्तकों और मुद्रित साहित्य की तादाद में बढ़ोत्तरी होती रही। साथ ही, नाटक, संगीत व अन्य परफॉर्मिंग कलाओं का भी तेजी से प्रसार हुआ। सामन्ती युग के विपरीत, जब कला के ये तमाम माध्यम सामन्तों-जमींदारों के जलसाघरों में कैद हुआ करते थे, अब कला के तमाम माध्यम पुनरुत्पादन-योग्य बनने लगे। 18वीं सदी के अन्त और 19वीं सदी की शुरुआत में फोटोग्राफी के आने और कुछ ही दशकों बाद चलचित्र के आने के साथ कलात्मक रचनाओं के पुनरुत्पादन में अभूतपूर्व क्रान्ति हुई। विचारों के प्रसार का पैमाना और रतार अद्वितीय हो गये। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। इसी पूरी प्रक्रिया में पूँजीवादी मीडिया का विकास हुआ। निश्चित रूप से, मीडिया भी वर्ग संघर्ष का स्थल है, लेकिन जाहिरा तौर पर ‘जिस वर्ग के हाथ में भौतिक उत्पादन के साधन होते हैं, बौद्धिक उत्पादन पर भी उसी का नियन्त्रण होता है।’
पूँजीवाद को मीडिया की जरूरत है और पूँजीवादी युग में ही मास मीडिया जैसी कोई चीज अस्तित्व में आ सकती थी। आप तकनीकी तौर पर किसी ‘सामन्ती मीडिया’ या ‘दास मीडिया’ जैसी चीज की बात नहीं कर सकते हैं। पूँजीपति वर्ग को मीडिया की जरूरत ठीक इसीलिए होती है, क्योंकि उसका शासन प्रभुत्व पर नहीं बल्कि वर्चस्व पर आधारित होता है। उसे अपने शासन के लिए ‘सहमति’ का उत्पादन और पुनरुत्पादन करना होता है। निश्चित तौर पर, आज की दुनिया की सच्चाई बताकर पूँजीपति वर्ग अपने शासन के लिए सहमति नहीं निर्मित कर सकता है। जाहिर है कि ऐसा करने के लिए उसे एक छद्म चेतना का निर्माण करना होता है, उसे जनता की चेतना की प्रतिक्रियावादी सम्भावना- सम्पन्नता को क्रियान्वित करना होता है, उसे मिथकों को सामान्य-बोध (कॉमन सेंस) के रूप में स्थापित करना होता है, उसे दुनिया की एक काल्पनिक झूठी तस्वीर पेश करनी होती है, उसे दिखाने से ज्यादा छिपाना होता है, और यहीं पर बुर्जुआ विचारधारा का महत्त्व सामने आता है।
‘पूँजीपति वर्ग जनता को विज्ञान और तर्क केवल तकनोलॉजिकल क्षेत्र में दे सकता है, या फिर सिर्फ उतना ही दे सकता है, जिससे कि उसका अस्तित्व खतरे में न पड़ जाये। इसलिए जहाँ एक ओर विज्ञान की शिक्षा दी जाती है, वहीं दूसरी ओर तमाम किस्म के रूढ़िवाद, परम्परावाद, कूपमण्डूकता, अन्धराष्ट्रवाद और साथ ही तमाम अवैज्ञानिक और अतार्किक विचारों को भी छात्रों-विद्यार्थियों के दिमाग में भरा जाता है। तालीम लेने वाले नौजवानों के लिए अक्सर विज्ञान और तर्क का क्षेत्र बस प्रयोगशाला रह जाता है। भौतिकी और रसायनशास्त्र के उन्नत प्रयोग करने वाले विज्ञान के छात्र भी साक्षात्कार देने से पहले पुट्टूपारथी, बालाजी आदि में आशीर्वाद लेने जाते हैं। वैज्ञानिक उपग्रह बनाने के बाद प्रक्षेपित करने से पहले उसे तिलक लगाने मन्दिर ले जाते हैं। इसलिए यह व्यवस्था विज्ञान के क्लर्क पैदा करती है, वैज्ञानिक नहीं। ठीक उसी प्रकार मीडिया भी काम करता है। यदि आज आप न्यूज चैनल (जिन्हें न्यूज चैनल कहना ही बेमानी है।) देखें तो उसमें टैरट कार्ड, राशिफल और वास्तु से लेकर रावण की ममी, सीता के जमीन में समाने की जगह आदि तक दिखलाया जाता है। यदि आप मनोरंजक धारावाहिकों को एक हते से ज्यादा देख लें तो आप शायद उदात्तता, व्यापकता, असीमता आदि जैसे शब्दों की परिभाषा ही भूल जायें, और हर तुच्छ चीज आपको गुदगुदाये। यदि आप म्यूजिक चैनल व लाइफस्टाइल चैनल देखें तो उसके रियैलिटी शो देखकर आपको उबकाई या मितली आ सकती है (बशर्ते कि आपमें कुछ बुनियादी मानवीय मूल्य बचे हों।)। अगर आप अखबारों को देखें तो पाते हैं कि जो समाचार बनाकर पेश किया जाता है, वह वास्तव में समाचार है ही नहीं। जो समाचार है उसे या तो अखबारों में जगह ही नहीं मिलती या फिर वह एक कॉलम का फिलर आइटम बनकर रह जाता है। आज की फिल्मों के बारे में जितना कम कहा जाये उतना बेहतर है। कला समाज को सौन्दर्यात्मक चित्रण करती है। यदि यही कला की परिभाषा है तो अधिकांश फिल्मों को कलात्मक रचना कहा ही नहीं जा सकता है, बल्कि वे कचरा-करकट हैं, और इस कचरे में से भी आधे से ज्यादा सेमी-पॉर्नोग्राफिक है।
पूँजीवादी मीडिया इन सभी माध्यमों के जरिये या तो दिमाग को सोचने की आदत से मुक्त करता है और एक हल्के नशे में रखता है, या फिर वह सिर्फ उन मुद्दों को सोचने को मजबूर करता है, जिन पर शासक वर्ग हमें सोचवाना चाहता है। निश्चित तौर पर, कुछ अच्छे टीवी कार्यक्रम, अखबारी कॉलम और फिल्में भी होती हैं। लेकिन उनकी तादाद नगण्य होती है और सांस्कृतिक घटाटोप के आलम में वे कहाँ गुम हो जाती हैं, पता भी नहीं चलता है। वास्तव में पूँजीवादी मीडिया पूँजीपति वर्ग के विश्व-दृष्टिकोण, उसके दर्शन, राजनीति और संस्कृति के प्रभुत्व को जनता के मस्तिष्क पर स्थापित करने का प्रयास करता है। लेकिन यह काम मीडिया यान्त्रिक तरीके से नहीं करता है, बल्कि बेहद जटिल और संश्लिष्ट तरीके से करता है। यह प्रक्रिया अन्तरविरोधी और विरोधाभासी होती है। इस पूरी प्रक्रिया में मीडिया लोगों को चीजों को देखने का एक नजरिया देता है। यह विभिन्न रोजमर्रा की घटनाओं और परिघटनाओं को देखने का एक व्याख्यात्मक ढाँचा देता है। यह व्याख्यात्मक ढाँचा या चैखटा लोगों को आलोचनात्मकता से महरूम करता है और उन्हें एक छद्म आलोचनात्मकता देता है। यह यथास्थिति की कोई परिवर्तनकामी आलोचना पेश करने की क्षमता से जनता को वंचित करता है। ऐसा नहीं है कि पूँजीवादी मीडिया पूँजीवादी समाज की नग्न सच्चाइयों और बर्बर यथार्थ को बिल्कुल चित्रित ही नहीं करता है। लेकिन वह उन्हें चित्रित करते हुए जनता को एक छद्म, नपुंसक और पराजयवादी आलोचनात्मकता देता है। कई बार अगर व्यवस्था की कोई आलोचना मौजूद नहीं होती तो बुर्जुआ मीडिया ही उसकी एक छद्म आलोचना पेश कर देता है। जैसा कि नोम चॉम्स्की ने कहा है, लोगों के दिमागों पर नियन्त्रण करने के लिए शासक वर्ग बहस-मुबाहिसे का सीमित और अप्रभावी स्पेस देता है, लेकिन उस स्पेस में वह काफी जीवन्त बहस-मुबाहिसा आयोजित कराता है। जाहिर है, ऐसे बहस-मुबाहिसे से व्यवस्था को कोई खतरा नहीं होता, बल्कि उसका वर्चस्व और विकसित होता है। इस पूरी प्रक्रिया में पूँजीवादी मीडिया पूँजीवादी मिथकों और पूर्वाग्रहों को सामान्य बोध बना देता है और साथ ही पूँजीपति वर्ग के शासक को तमाम बुराइयों के बावजूद सबसे नैसर्गिक और सबसे उपयुक्त करार देता है।
यह बात सच है कि पूँजीवादी मीडिया अपने इस काम में हमेशा कामयाब नहीं हो पाता है। पूँजीवादी समाज में आर्थिक संकट, बेरोजगारी, अमीरी और गरीबी के बीच खाई और बदहाली बढ़ने के साथ मीडिया द्वारा ‘सहमति’ के निर्माण की वर्चस्वकारी प्रणाली गड़बड़ तरीके से काम करने लगती है। पूँजीवादी मीडिया द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था का पक्षपोषण अधिक से अधिक प्रहसनात्मक और भोण्डा लगने लगता है। मीडिया में बैठे पूँजीपति वर्ग के ‘थिंक टैंक’ जिस रूप में सन्देश को लोगों के बीच पहुँचाना चाहते हैं, सन्देश उस रूप में लोगों के पास नहीं पहुँचता। लोग उसे कुछ अलग तरीके से ही ग्रहण करते हैं और उससे वे अर्थ निकालते हैं जोकि इस सन्देश को बनाने के वाले का कतई इरादा नहीं था।
लेकिन निश्चित तौर पर हम पूँजीवादी मीडिया के खतरनाक असर और उसके विचारधारात्मक वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए पूँजीवादी समाज के संकटग्रस्त होने का इन्तजार नहीं कर सकते हैं। लिहाजा, हमें उनके वर्चस्व के बरक्स अपना प्रति-वर्चस्व निर्मित करना चाहिए। हमें प्रभुत्वशाली पूँजीवादी मीडिया के बरक्स क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया निर्मित करना चाहिए। हमें मौजूद मीडिया द्वारा जनता को मुहैया कराये जा रहे बुर्जुआ व्याख्यात्मक चैखटे के विकल्प के तौर पर देश-दुनिया, समाज, संस्कृति और हरेक विषय-वस्तु के सही विश्लेषण के लिए एक क्रान्तिकारी वैज्ञानिक व्याख्यात्मक चैखटा मुहैया कराना चाहिए। निश्चित तौर पर, ऐसा क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया पूँजीवादी विराट मीडिया तन्त्र के बराबर आकार और पूँजी वाला नहीं हो सकता है, और न ही उसे होने की जरूरत है। हम कारपोरेट मीडिया की पूँजी की ताकत का मुकाबला अपने स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं द्वारा कर सकते हैं। हमारे पास ऐसे हजारों प्रतिबद्ध युवा संस्कृतिकर्मी, संगीतकार, नाटककार, कवि, लेखक, कहानीकार, पत्रकार, अभिनेता आदि होने चाहिए जो जनता को वह समाचार, वह संस्कृति, वे गीत, वे नाटक, वे कहानियाँ, वे कविताएँ, वे उपन्यास मुहैया करा सकें जिनकी जनता को जरूरत है। जो जनता को आज की दुनिया की सच्चाई से वाकिफ करायें और साथ ही इस अमानवीय दुनिया के विकल्प के निर्माण की ओर भी प्रेरित और प्रोत्साहित करें। जो उन्हें एक नयी दुनिया के सपने देखने और उन सपनों को साकार करने की दृष्टि दें। कहाँ हैं आज ऐसे कलाकार? कहाँ हैं आज ऐसे लेखक और पत्रकार? हमें चाहिए ऐसे दर्जनों अखबार जो देश के तमाम हिस्सों में जनता की भाषा में उनसे संवाद स्थापित कर सकें और जो खबरों की परिभाषा को बदल दें। हमें चाहिए ऐसी नाटक टीमें जो शहरों की झुग्गी बस्तियों और निम्नमध्यवर्गीय कालोनियों से लेकर कॉलेज, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों पर जनता के जीवन से जुड़ी सच्चाई को बेपर्द करने वाले नाटक दिखा सकें। हमें चाहिए ऐसे गायक और संगीतकार जो देश के कोने-कोने में विद्रोह के राग भर दें और लोगों को जगा दें। हमें चाहिए ऐसे फिल्मकार जो पर्दे पर आज के मेहनतकश जीवन की त्रासदी को ऐसे उकेर दें कि लोग अपनी आदतों की ताकत को हराकर जाग उठें और खड़े हो जायें कहाँ हैं आज ऐसे युवा नाटककार, संगीतकार, गायक और फिल्मकार? हमें और भी बहुत कुछ चाहिए। हमें अपना टेलीविजन चैनल और रेडियो चैनल चलाना चाहिए, जब तक आज का पूँजीवादी जनवाद इस बात का स्पेस देता हो। हमारे पास दजर्नों सचल पुस्तक प्रदर्शनी वाहन होने चाहिए। और सबसे ऊपर इस पूरे ताने-बाने को संचालित करने के लिए पूँजीपतियों का पैसा और वेतनभोगी कर्मचारी नहीं, बल्कि हजारों की तादाद में समर्पित और प्रतिबद्ध क्रान्तिकारी कार्यकर्ता चाहिए। तभी एक ऐसा वैकल्पिक मीडिया खड़ा हो सकता है, जोकि पूँजीवादी मीडिया के वर्चस्व के बरक्स समाज में अपनी खन्दकें खोद सकता है, अपनी अवस्थितियाँ बाँध सकता है और एक क्रान्तिकारी प्रति-वर्चस्व का निर्माण कर सकता है। तभी हम मौजूदा मीडिया के घिनौने, बदशक्ल झूठ और फरेब का मुकाबला कर सकते हैं, तभी हम उसके द्वारा फैलाये जा रहे सांस्कृतिक घटाटोप के विरुद्ध क्रान्तिकारी जनसंस्कृति की मशाल को जला सकते हैं। और जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, निश्चित तौर पर हम एक समूचे परिवर्तनकामी और क्रान्तिकारी प्रोजेक्ट को नहीं खड़ा कर सकते हैं।
21वीं सदी की क्रान्तियों के एजेण्डे पर संस्कृति का प्रश्न काफी ऊपर आ गया है। क्योंकि आज के पूँजीपति वर्ग ने संस्कृति और मीडिया का अपने वर्ग शासन के लिए वर्चस्व निर्मित करने के लिए जबरदस्त इस्तेमाल किया है। हमें उस वर्चस्व को चुनौती देनी होगी। और इसके लिए एक नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की जरूरत है। और ऐसे नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन के लिए निश्चित तौर पर हमें ऐसा क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया चाहिए।
इसी समझदारी के साथ हम ‘आह्वान’ का मीडिया विशेषांक लेकर आपके बीच हैं। इस अंक के अधिकांश लेख आज के पूँजीवादी मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र, उसकी प्रणाली, उसके तमाम कार्यक्रमों, समाचार चैनलों, धारावाहिकों, रियैलिटी शो आदि पर केन्द्रित हैं और उनका विश्लेषण करते हैं। हम एक बार फिर से देर से अंक निकाल पाने के लिए क्षमाप्रार्थी हैं।
- साभार आह्वान (मीडिया विशेषांक)





Tags : governance capital level political economic variations systems exploitative Capitalism