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बौद्ध धर्म की प्रासंगिता व व्यावहारिकता

Raghunath Bouddh

Friday, April 26, 2019, 10:39 AM
dalai lama

बौद्ध धर्म की प्रासंगिता व व्यावहारिकता
विश्व में विभिन्न धर्म हैं जिनके विचारों व मत मतान्तरों में विभिन्नता है। हर धर्म का अलग शास्ता, साहित्य, सिद्धान्त, मत एवं अनुयायी हो सकते है लेकिन धर्म की झलक, अभिव्यक्ति या पहचान व्यक्ति के आचरण, संस्कार, बौद्धिक विकास, रीति-रिवाज, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड, अभिवादन, रहन-सहन तथा व्यक्ति के अन्य धार्मिक क्रिया-कलापों आदि में देखी जा सकती है। यही सभी सामाजिक प्राणियों के लिए जरूरी हो सकते हैं। अतः यह कहना नामुमकिन है, कि व्यक्ति धर्म के बिना जीवित रह सकता है, लेकिन कार्ल माक्र्स कहतें है कि ‘धर्म अफीम’ है अर्थात् इसके सेवन करने से नशा होता है। धर्म तो वही है जो एक सामाजिक व्यक्ति धारण करता है। जैसे एक सभ्य व्यक्ति द्वारा कपड़े पहनना एक आवश्यकता है, ठीक उसी तरह एक सामाजिक व्यक्ति के लिए धर्म उसकी दिनचर्या में शामिल है, वह उससे अलग नहीं हो सकता। लेकिन यह भी व्यक्ति पर निर्भर करता है कि धर्म को किस रूप में धारण करता है तथा धर्म का पालन करता है।
जहाँ तक बौद्ध धर्म की प्रासांगिकता एवं इसकी व्यावहारिकता का सवाल है। ‘धम्म’ धर्म से भिन्न है। धर्म व्यक्तिगत होता है। जबकि ‘धम्म’ धर्म से भिन्न है। धर्म व्यक्तिगत होता है, जबकि ‘धम्म’ सार्वजनिक व सामाजिक है। धर्म में पूजा-अर्चना, कर्मकाण्ड, आडम्बर हो सकते है तथा नैतिकता का अभाव भी हो सकता है, लेकिन नैतिकता एवं मानवता ‘धम्म’ के मुख्य पहलू है। धर्म में कर्म के सिद्धान्त तो हो सकते है लेकिन वे आत्मवादी होते है। ‘धम्म’ में पूर्व कर्मों के सिद्धान्तों को नकारा है तथा आत्मा के अस्तित्व को मान्यता नहीं दी है।  धर्म का शास्ता हो सकता है लेकिन बौद्ध धम्म में तथागत बुद्ध ने स्वयं को प्रतिस्थापित नहीं किया तथा अपना कोई स्थान नहीं रखा बल्कि विचारों को स्वतंत्र एवं परिवतर्नीय माना। तथागत बुद्ध ने कहा है किसी बात को इसलिये मत मानों की यह मैंने कही है, बल्कि उसे ज्ञान व विज्ञान की कसौटी पर परखों, फिर मानों।‘ यहाँ धम्म में सोचने की स्वतंत्रता है तथा बात थोपी नहीं जाती है, जबकि अन्य धर्मों में खुदा का बेटा, अल्लाह का पैगम्बर या स्वयं को अवतरित होने की बात कहकर बात को मनवायी गयी है। बुद्ध कहते है ‘एहि परिसको धम्मा’ अर्थात् आओ, देखो व अनुभव करो।
बौद्ध धम्म का केन्द्र बिन्दु मानव व मानवीय समस्याएँ है, अतः यह ज्यादा प्रासंगिक है। यहाँ बौद्ध धम्म व्यक्ति को दिग्भर्मित नहीं करते हुए व्यक्ति के विकास, प्रगति एवं कल्याण पर जोर देता है। अतः बुद्ध मार्गदाता थे, मोक्षदाता नहीं थे। हो सकता हैं अन्य धर्मों में दुख का कारण बतायें हो लेकिन दुखों का निवारण तथागत बुद्ध ने बताया है। यहां तथागत बुद्ध ‘अत्त दीपो भवः’ एवं ‘अत्ते ही अत्तनो नाथो’ की बात कहते हैं। (तुम स्वयं अपने मालिक हो, तुम्हारा दूसरा कोई मालिक नहीं है)
    धर्म के व्यावहारिक पहलू को देखे, तो बौद्ध धर्म में नैतिकता है, इसलिए धम्म के तीन स्तम्भ शील, समाधि व प्रज्ञा में से शील को धम्म की आधारशीला कहा है। मुख्य रूप से बौद्ध धम्म में चार आर्य सत्य, पंचशील तथा आर्य आष्टांगिक मार्ग को समझना होगा। धम्म को समझने के लिए कारण व परिणाम के सिद्धान्त पर आधारित ‘प्रतित्यसमुत्पाद’ द्वारा भी समझा जा सकता है जिसमें अविद्या व तृष्णा को दुखों का मुख्य कारण माना। बौद्ध धम्म में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया है। अतः परमात्मा, पुर्नजन्मों का भय, स्वर्ग व नर्क की संकल्पना, कर्मकाण्ड एवं आडम्बर आदि का कोई स्थान नहीं है। प्रकृति व विज्ञान पर आधारित बौद्ध धर्म है। बुद्ध ने सभी चीजों का केन्द्र मन को माना है तथा मन को पूर्वगामी मानते हुए मन की साधना पर जोर दिया है।
बौद्ध धम्म को प्रासंगिक व व्यावहारिक मानते हुए बाबासाहब डाॅ. अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों के लिए मानवतावादी, समता, स्वतंत्रता व बन्धुत्व पर आधारित, वैज्ञानिक धम्म के लिए रास्ते खोल दिये क्योंकि उनका मिशन था कि ‘जाति विहीन, वर्ग-विहीन, न्यायपूर्ण समाज की संरचना से समता पर आधारित शोषण मुक्त समाज हो, इसलिए बौद्ध धम्म ही एक मात्र विकल्प था जो कसौटी पर खरा उतरा। आज भी बौद्ध धम्म प्रासांगिक एवं व्यावहारिक है जिसमें ही उनका विकास संभव है तथा वे मिश्रित व्यवस्था से छुटकारा पाकर बाबासाहब की अंतिम इच्छा ‘बौद्धमय भारत की संकल्पना’ को पूरा कर सकते है।
रघुनाथ बौद्ध, 
मालवीय नगर, जयपुर।





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