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बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन

Dr. Pandurag parate

Monday, April 22, 2019, 08:03 AM
Anand kousalyan

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन
सुविख्यात बौद्ध भिक्खु, महान साहित्यकार एंव विचारक डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन का जन्म 5 जनवरी, 1950 को सुहाना नामक गाॅव में, अंबाला जिला, चंडीगढ़ के समीप पंजाब प्रान्त में एक क्षत्रिय (खत्री) परिवार में हुआ था।
भदन्तजी का बचपन का नाम ‘हरिनामदास’ था। उनके पिता रामसरनदास अंबाला में हिंदू मोहमडन हायस्कूल में मुख्याध्यापक थे। उनकी माता बचपन में ही चल बसी थी। पिताजी सिक्खों के गुरू ग्रन्थ साहब पढ़ने गुरूद्वारा भी जाया करते थे। हरिनामदास ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। स्वाधीनता संग्राम के असहयोग आन्दोलन में पढ़ाई छोड दी। जब लाल लाजपतराय ने लाहौर में कौमी विद्यापीठ की स्थापना की तो बी.ए. में प्रवेश ले लिया। एक प्रकार से वह विद्यापीठ क्रांतिकारियांे का बालेकिल्ला ही था। 19 वर्ष की आयु में बी.ए. पास कर 1924 में पुनः वे स्वाधीनता की लड़ाई में शामिल हुए।
क्रांतिकारी भगतसिंह, सुखदेव राजगुरू और अनागारिक धम्मपाल तथा हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक यशपाल उनके सहपाठी थे।
महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन जी के व्यक्तित्व की उन पर गहरी छाप पडी। दोनो ने श्रीलंका जाकर महास्थविर लुनुपोकुने धम्मानंदन के मार्गदर्शन में 5 फरवरी 1928 में प्रव्रज्या और कुछ ही दिन बाद उपसम्पदा (बौद्ध भिक्षु की दीक्षा) ग्रहण की। अब वे हरिनामदास से स्वामी विश्वनाथ और स्वामी विश्वनाथ से ‘आनन्द कौसल्यायन’ बन गये। राहुल जी के लंका से तिब्बत जाने के कारण वे बाद में प्रव्रजित हुए।
सन् 1932-34 में बौद्ध धर्म प्रचार के उद्देश्य से इंग्लैण्ड गये। सन् 1936 में ‘सारनाथ’ रहकर ‘धम्मदूत-मासिक’ का संपादन कार्य किया। मूल पालि भाषा के त्रिपिटक ग्रन्थ जातक 6 खण्ड, अंगुत्तर निकाय 4 भाग, महावंश तथा अभिधम्मत्थ संड्गहो आदि का अनुवाद हिन्दी में किया। सन् 1941 से 1951 तक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिन्दी नगर वर्धा के प्रथम प्रधानमंत्री रहे। महात्मा गांधी, पुरूषोत्तमदास टण्डन और डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद साहित्यकारों से सम्बन्धित रहे।
आनन्दजी सन् 1956 में एक अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध भिक्षुओं का प्रतिनिधि मंडल लेकर चीन गए। 1959 से 1968 तक श्रीलंका के केलनिया विद्यालंकार विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागध्यक्ष के पद पर आसीन रहे।
पालि-हिन्दी शब्दकोश पर उत्तर-प्रदेश सरकार ने ‘मान-पत्र’ तथा पाॅच हजार रूपए के नगद पुरस्कार से, और नवनालन्दा (बिहार) ने, 31 अक्टूबर 1971 को ‘विद्यावारिधि’ (डी.लिट्) तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग (उ.प्र.) ने उनकी अमूल्य हिन्दी सेवा के उपलक्ष्य में सन्मानार्थ ‘साहित्य वाचस्पति की उपाधि देकर ताम्रपत्र पद्रान किया।
डाॅ. भदन्त 1968 में श्रीलंका से नागपुर आये तथा यहाॅ ‘दीक्षाभूमि’ में कुछ साल तक रहे। यहाॅ रहकर छह वर्ष तक ‘दीक्षाभूमि’ पाक्षिक का प्रकाशन-सम्पादन किया तथा कुछ पुस्तकों का प्रकाशन भी किया। बाद में 5/1/1985 में ‘बौद्ध प्रशिक्षण संस्थान’ कामठी रोड़ पर अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध-केन्द्र का परम पावन दलाई लामा के हाथों द्वारा उद्घाटन करवाया।
आपने बुद्धभूमि में रहकर तथा पहले भी कई देशों का भ्रमण किया और बौद्ध-धर्म के प्रचार प्रसार में योगदान दिया। विविध स्थानों पर आयोजित बौद्ध सम्मेलनो में उन्होने भाग लिया। डाॅ. बाबासाहब आम्बेडकर से कई बार भेंट करके धम्म प्रचार में योगदान दिया। बाबासाहब के द्वारा लिखित "The Buddha and His Dhamma" उनकी बहुमूल्य इस अंग्रेजी ग्रन्थ का हिन्दी एंव पंजाबी भाषा में अनुदान किया। वे बहुमूखी प्रतिमा के धनी थे।
डाॅ. भदन्त कौसल्यायन विश्वविद्यालय के सीनेट के सदस्य भी रहे तथा पालि भाषा के वीजिटिंग प्रोफेसर भी रहे।
वे ‘अखिल भारतीय भिक्षु संघ’ के 10 साल तक संघानुशासक (अध्यक्ष) रहे। दि. 6-7 दिसम्बर, 1956 में वे  ‘दिल्ली से मुंबई’ तक बाबासाहब के पार्थिव शरीर के साथ आए। आपके द्वारा ‘बौद्ध-विधि’ से बाबासाहब की अन्तेष्ठि की गई।
भदन्त जी ने- महावंश, जातक (6 खण्डो में) अंगुत्तर निकाय (4 भागो में) बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन, दर्शन-वेदो से कार्लमाक्र्स तक, भगवद्गीता की बुद्धिवादी समीक्षा, राम कहानी राम की जबानी, मनुस्मृति जलाई गई क्यो, अग्नि परीक्षा किसकी ? हिन्दू समाज किधर, जो न भूल सका, जो लिख न सका, तुलसी के तीन पात, देश की मिट्टी बुलाती है, रामचरित मानस से ब्राम्हणशाही तथा नारी निंदा बाबासाहब, रेल का  टिकिट, बहानेबाजी, यदि बाबा न होते? भगवद्गीता और धम्मपद, क्राति के अग्रदूत भगवान बुद्ध, बौद्ध धम्र्म की महान देन, अनात्मवाद, श्रीलंका, धर्म के नाम पर, पच्चीसवाॅ घण्टा, मोग्गल्यायन व्याकरण, पालि-हिन्दी कोश, 31 दिन में पालि, बुद्धगुणालंकार, सिंहल भाषा और साहित्य, अभिधम्मत्थ संघ हो, सच्च संघ हो, धम्मपद कहाॅ क्या देखा, हिन्दू धर्म की रिडल (अनुवाद), बौद्ध जीवन पद्धति, अनागरिक धम्मपाल और संघराज शरणंकर, राहुल सांकृत्यायन बाल जीवनी माला, भिक्षु के पत्र, सारिपुत्र मौद्गल्यायन तथा साॅची, "An Intelligent Man's Guide to Budduism, Swami Vivekananda of the Great Buddha",
आवश्यक पालि, तथागत का शाश्वत संदेश, बौद्ध धर्म का सार, संक्षिप्त बुद्धचर्या, The Great Buddist Emperors of Asia, Essays on Buddism, The Gospel of Buddha, अछूत कौन और कैसे? दस पारमिताएं बुद्ध की शिक्षा, विनयपिटक, बोधिचर्यावतार, वे बुद्ध के चरणचिन्ह पर चले थे, राष्ट्रभाषा की समस्याएं(सम्पादक), धम्म-चिंतन (भाग-1), भारतीय बौद्धो का घोषणा पत्र (डाॅ. भीमराव रामजी आम्बेडकर-डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन), सुखोबुद्धान उप्पादो, बौद्ध धर्म ही क्यो? संयोजन अथवा दस-भव बंधन, गौडपादाचार्यकृत आगम-शास्त्र (अनुवादक), बौद्ध धर्म और माक्र्यवाद, वर्ण व्यवस्था या मरण व्यवस्था? बुद्ध-शतक्रम आदि लगभग 70 पुस्तकें और राष्ट्रभाषा, दीक्षाभूमि संदेश जैसी अन्य पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन एंव लेखक इत्यादि अमर-विचारों की पूंजी बौद्ध जगत, हिन्दी जगत तथा अन्य मतावलत्बियों को प्रदान की है।
‘बहता पानी’ रमता जोगी’ के रूप मे वे घुमक्कड बनकर श्रीलंका, थाईलैण्ड, बर्मा, मलेशिया, इंडोनेशिया, वियतनाम, जापान, चीन, इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, तायवान, नेपाल आदि देशों का दौरा कर बौद्ध-धर्म को और साथ-साथ हिन्दी भाषा को भी समृद्ध बनाया।
वे विरले व्यक्तियों में से एक थे जो अपनी विशेषताओं को खुद छिपाये रखतें है पर जो छिपी नही रहती, जो परिमल-सी सभी दिशाओं में फैली रहती है। पिछली अर्धशताब्दी में भारत ने अनेक बौद्ध विद्वान हुए, उनमें से कुछ ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की किन्तु उनमें भदन्त आनन्द कौसल्यायन अपना विशिष्ट स्थान रखते है। बौद्ध - धर्म के प्रकाण्ड पण्डित, व्याख्याकार और अनेक बौद्ध ग्रन्थों के टीकाकार, अनुवादक तो थे ही, किन्तु हिन्दी के एक ऐसे साहित्यकार भी थे जिनकी हिन्दी सेवा कभी विस्मृत नही जा सकती। उनके हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा, विदर्भ साहित्य सम्मेलन, नागपुर, से वर्षो तक घनिष्ट रूप से सम्बन्ध रहे। वे विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यकारिणी के सदस्य थे। 15 मई, 1988 तक उन्होने अपना लेखन और भ्रमण कार्य जारी रखा। 83 वर्ष की पक्की उम्र लगभग सभी को थका देती है पर भदन्त जी इसके अपवाद रहे। जब तक जिसे पूर्ण सक्रीयता के साथ। एक पूर्णतः आत्मार्पित व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। वे एक कुशल वक्ता, सभी प्रकार के संस्मरणो के अक्षय भण्डार और हिन्दी के शैलीकार थे, जिनके संस्मरण व अन्य निबंध आज भी साहित्य प्रेमियों द्वारा आदर और सम्मान के साथ पढ़े जाते है। बरसो पहले हिन्दी का एक अनूठा और अप्रतिम विद्वान पैदा हुआ था, जिसका नाम था- महाण्डित राहुल सांकृत्यायन। भदन्त आनन्द कौसल्यायन उनके अभिन्न साथियों में से थे। दोनों ने बौद्ध धर्म की अनेक पुस्तकें लिखी, बौद्ध साहित्य कों जन-जन तक पहुंचाने में कोई कमी नहीं रखी। बौद्ध धर्म को माननेवालों की संख्या, बल की दृष्टि से दुनिया में तीसरे क्रमांक पर है, बुद्ध के बुद्धिवादी चिंतन ने विश्व के समग्र चिंतको को बहुत अधिक समृद्ध किया है। और उस चिंतन को लोगों तक ले जाने में कौसल्यायन जी ने जो कार्य किया, उसे कभी भुलाया नही जा सकता।
उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था, एक स्वतंत्रता सेनानी का, कुरीतियों के खिलाफ एक विद्रोही का, एक प्रखर समतावादी का, एक उच्चतम मानवतावादी का बौद्ध धर्म के एक विलक्षण पण्डित का, हिन्दी भाषा के एक उत्कृष्ठ व्यक्तित्व एंव कृतित्व का, पर सर्वोपरि उनका पिण्ड एक साहित्यकार और विचारक का था। एक विचारक दूसरे विचार के प्रति स्वभावतः आकर्षित होता है। वे महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के प्रति आकर्षित ही रहे, समर्पित भी रहे। और उसके बाद डाॅ. बाबासाहेब आम्बेडकर के विचारों ने  उन्हे अपनी ओर खींचा, पूरी तरह, समग्र रूप में, यही कारण था। कि 83 वर्ष की पूर्ण अवकाश ग्रहण की उम्र में उनकी इच्छा थी कि ‘रिडल्स इन हिन्दूइज्म’ के हिन्दी में अनुवाद की। उसका भी अनुवाद हुआ।
उनका निधन हिन्दी के साहित्य जगत, बौद्ध धर्म के वैचारिक जगत और समतावादियों के समतावादी जगत की अपूरणीय क्षति है।
बाबासाहब आम्बेडकर हिन्दू धर्म में जन्मे, परंतु बौद्ध-धर्म में चिरनिद्रित हुए। उनकी प्रतिज्ञा उन्होने पूरी की।
भदन्त जी हरिनाम दास के रूप में हिन्दू धर्म के क्षत्रिय (खत्री-परिवार) वंश में जन्मे थे। परंतु पिताजी की मृत्यु के पश्चात् अस्थि विसर्जन के समय पण्डों से यह कहना कि ‘न दान दॅूगा, न श्राद्ध करूॅगा’ तथा हिन्दू धर्म के प्रति हुए मनुमुटाव के कारण वे बौद्ध-भिक्षु की दीक्षा लेकर बाबासाहब के विचारों से प्रेरित होकर वे नागपुर की दीक्षाभूमि पर बौद्ध बने। नागपुर की बुद्धभूमि पर, महान भिक्षु-संघ की उपस्थिति में, उन महान भुवनप्रदीप का आयु के 83 वे साल में दाह-संस्कार किया गया। (22 जून, 1988 को परिनिर्वाण और 23 जून को अन्तेष्टि)
सिद्धार्थ भी क्षत्रिय कुल में जन्मे और ‘सम्य्क-सम्बुद्ध होकर चिरनिद्रित (परिनिवृत्त) हुए। भदन्त जी का भी कुछ ऐसा ही हुआ।
भदन्त जी हमेशा कहाँ करते थे - ‘‘मेरे जीवन के साइकिल के दो पहिए है - 1) बौद्ध धर्म का प्रचार और 2) हिन्दी भाषा की सेवा। इसके अनुरूप ही उन्होने अपना जीवन ढाला।
अन्त में उनके कुछ शब्द अवश्य याद आते है -
1) ‘‘देखों धम्मदीप। संसार में दो व्यक्ति महान होते है - एक, जो दूसरों के बारे में लिखते है और दो, जिसके बारे मे दूसरे लिखते है।’’ यह बात आप के विषय में यथार्थ सिद्ध हुई। (बुद्धभूमि-नागपुर का संस्मरण सन् 1985)
2) किसी कुएॅ की गहराई उसकी डोरी की लम्बाई से ही नापी जाती है, लेकिन महापुरूषों की ऊॅचाई मापी जाती है, उनके कई गुणो के मापदण्ड से। (डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन उनकी ही कृति- ‘‘बाबासाहब इस पुस्तक से) उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने बौद्ध जगत को और हिन्दी जगत को आलोकित किया है। डाॅ. भादन्त आनन्द कौसल्यायन जी की जीवन की गाड़ी वर्धा के वर्तुलाकार पहिये पर समूचे भारत और उत्तर पूर्व के धम्म प्रभावित राष्ट्रों मे धम्म और हिन्दी का परचम लहराते घूमती रही। इस बात को उन्होने कभी भी विस्मृत नही किया कि वे पहले बौद्ध भिक्षु है बाद में राष्ट्रभाषा प्रचारक। अर्थात- जो भिक्षु तरूणाई से बुद्ध शासन की सेवा में रत हो जाता है, तो वह बादलों से मुक्त चन्द्रमा की भाॅति इस लोक को प्रकाशित करता है।
‘‘महान व्यक्ति किसी एक परिवार के नही होते, बल्कि वे सारे संसार के बन जाते है, जिस कुल में वे जन्म लेते है, उस कुल की ही नही, अपितु सारे संसार की वृद्धि होती है।’’
डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन जी का जीवन ऐसा ही एक धधकता ज्वालामुखी था। मृत्यु पर संघर्ष करके वे अपने कोटि-कोटि बौद्ध-हिन्दी और अन्य धर्मिय बंधुओं को दिनांक 22 जून, 1988 में हमे आंसू देकर चले गए। उनकी महान कृतियाॅ हमारे लिये संयोजे रहेगी। तथागत ने कहा ही है - ‘‘सब्बे सड्खारा अनिच्चा ति’’ अर्थात् सभी संस्कार अनित्य है। आनेवाले सब जाने वाले है।
हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक कन्हौयालाल मिश्र ‘‘प्रभाकर’’ ने उनके विषय में लिखा ‘‘डाॅ. कौसल्यायन जिनका क्षण बोलता रहा और कण मुस्काराता रहा’’ अनेक विधाओं से समृद्ध, अनेक भाषाओं के ज्ञाता डाॅ. कौसल्यायन की सेवाओं को समाज कभी विस्मृत नही कर पाएगा। पे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
- डाॅ. पांडुरंग पराते, नागपुर





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