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धर्मांतर पर पाबंदी गुलामी के तरफ बढ़ता कदम

Ashok Bondade

Friday, April 26, 2019, 03:36 PM
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धर्मांतर पर पाबंदी गुलामी के तरफ बढ़ता कदम
डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर के दीक्षा भूमि में 7 लाख लोगों को बौद्ध धम्म की दीक्षा देकर धम्मक्रान्ती की, हजारों सालों से ब्राम्हणवाद के वर्णव्यवस्था में मानसिक गुलामी में जकडे़ हुये अश्पृश्यों को मानव मुक्ती का मार्ग प्रशस्त किया, साथ ही भारतीय राज्यघटना द्वारा स्वतंत्रता का अधिकार दिया। लेकिन भारत के मनुवादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भारत की राज्य घटना मंजूर नहीं है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कठपुतली भाजपा के हाथ में जब केन्द्र की सत्ता आयी तब उन्होंने घटना का पुर्निविचार करने के लिये आयोग नियुक्त किया था, लेकिन उनका यह षडयंत्र सफल नहीं हुआ।
डाॅ. बाबा साहब आंबेडकर के धम्मक्रान्ति को तथा भारतीय राज्यघटना के स्वतंत्रता के समान अधिकारों को रोकने हेतु मनुवादी भाजपा सरकार ने धर्मान्तर विरोधी कानून बनाया, इस कानून में निम्न कालम है:-
1.    सेक्शन 3 में दबाव डालकर, लाभ के उद्देश्य से या धोखे से धर्मांतर करना गुनाह है।
2.    सेक्शन 4 में धर्मांतर की सूचना न देना अपराध है।
3.    सेक्शन 9 में उपरोक्त अपराध करने पर दंड का प्रावधान है।
धर्मांतर के बारे में मध्यप्रदेश सरकार ने 1961 में कानून बनाया उसे ‘‘धर्म स्वातंत्रय अभियान एक्ट 1968’’ ऐसा नाम दिया है, मध्यप्रदेश में अनुसूचित जाति की संख्या 13 प्रतिशत एवं आदिवासियों की संख्या 20 प्रतिशत है, धर्मांतर के बारे में उड़िसा सरकार ने 1967 ऐसा नाम दिया है, ओरिसा का कानून यह अवैध है ऐसा निर्णय 24 अक्टूबर 1972 को देते वक्त उड़िसा हाईकोर्ट ने कहा कि:-
1.    भारतीय राज्यघटना के कालम 25(1) में धर्म का अधिकार दिया है, तथा धर्मान्तर करवाना यह क्रिश्चन धर्म के धर्म प्रचारकों का एक भाग है,
2.    दबाव डालकर या धोखे से किया गया धर्मांतर यह घटना कालम 25(1) में दिये गये मर्यादाओं का एक भाग है,
3.    मन बदलना (Inducement) इसका अर्थ व्यापक है, वह कानून के मर्यादा के संबंध में उपयुक्त नहीं है। 
4.    यह कानून बनाने का अधिकार राज्यों का नहीं है,
4.    यह कानून सुची 1 की 97 वे विषय में आता है, इसलिये यह कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार का है।
    इन मुद्दों के आधार पर उड़िसा कानून उड़िसा हाईकोर्ट रद्द किया, मध्यप्रदेश सरकार के ‘धर्म स्वतंत्रता अभियान एक्ट 1968’ के अंतर्गत एक मामला कोर्ट में दर्ज हुआ, फादर स्टैनिसलस इनके विरोध में धर्मांतर विरोधी कानून की कलम 3, 4, 5(2)के अनुसार गुन्हा दाखल करने के लिये सब डिव्हीजनल मॅजिस्टेट, सलोदा बाजार, म.प्र. ने अनुमति दी, जब यह केस फस्र्ट क्लास मॅजिस्टेट, सलोदा बाजार के पास आयी तब फादर स्टैनिसल्स ने अपना पक्ष रखते हुये कहा कि, यह कानून करने का अधिकार राज्यों को नहीं है, इसलिये यह कानून घटना विरोधी है, क्योंकि यह कानून शेडयूल 7 की सूची 2 और सूची 3 के अंतर्गत नहीं आता, यह कानून सूची 1 के 97 वे विषय में आता है इसलिये यह कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केन्द्र सरकार को ही है, धर्मांतर विरोधी कानून की कालम 3, 4, और 5(2) यह भारतीय राज्यघटना के धर्मास्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार की कालम 25 से विसंगत है, ऐसा मत फादर स्टविसल्स ने रखा, लेकिन मॅजिस्टेट ने उनकी यह बात नहीं मानी, फादर स्टॅसिल्स ने हाईकोर्ट में घटना कलम 226 और 227 के अंतर्गत पिटीशन दाखल किया, उस वक्त उन्होंने निम्न तीन प्रश्न उपस्थित किये, 
1.      धर्मांतर विचरोधी कानून के सेक्सन 3, 8 और 5 यह कलम भारतीय राज्य घटना के धर्मस्वातंत्रय का मूलभूत अधिकार एवं 25(1) के विरोध में है,
2. राज्य सरकार को यह कानून बनाने का अधिकार नहीं है, यह अधिकार सूची 1 के 97 अनुसार केन्द्र सरकार का है,
3.    सेक्शन 5(1) और 5(2) यह कलम 20(3) के विरोध मंे है,
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट फादर स्टनिसल्स ने उपस्थित किये, तीनों मुद्दों को अमान्य किया तथा अपील को ठुकराकर मध्यप्रदेश के धर्मांतर विरोधी कानून ‘‘धर्म स्वातंत्रय एक्ट 1968’’ को वैद्य ठहराया,
इस निर्णय के खिलाफ यह केस सुप्रीम कोर्ट में गई, सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि, उनके आगे दो मुद्दे उपस्थित किये गये, पहला मुद्दा यह कानून घटना ने दिये 24(1) कालम के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करता है क्या? और दूसरा मुद्दा यह कानून बनाने का अधिकार राज्यों को है क्या?
भारतीय राज्य घटना के धर्म स्वतंत्रता के मूलभूत अधिकार के संबंधित कालम 24(1) में कहाँ है कि ‘‘सार्वजनिक सुव्यवास्थ्य, नीतिमत्ता, आरोग्य इनके या अन्य उपबंध के अधिनताने, सविवेक बुद्धी की स्वतंत्रता और धर्म का मुक्त प्रतिज्ञापन, आचरण एवं प्रसार (Propagate) करने के अधिकार का सभी व्यक्ति को समान हकदार हैं। 
प्रसार करने के (Propagate) अधिकार में धर्मांतर करके अपने धर्म का प्रसार करने का मूलभूत अधिकार है, यह बात अपीलकर्ता वकील ने रखी, इस पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि (Propagate) यह शब्द घटना के 25(1) इस कलम में आया है, इस कलम में एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को सिर्फ अपना धर्म प्रसारित करने का अधिकार दिया है, लेकिन उसे अपने धर्म में दीक्षित करने का अधिकार नहीं दिया है, सदविवेक बुद्धि का स्वात्रंत्य यह सभी धर्माे के लिये समान है, लेकिन दूसरे को अपने धर्म में धर्मांतरित करने का अधिकार घटना के इस कलम में नहीं दिया है। 
भारतीय घटना में दो तरह से बदल होते हैं, एक बदल घटना संशोधन द्वारा किया जाता है, और दूसरा बदल सर्वोच्च न्यायालय ने घटना में विहीन शब्दों का स्पष्टीकरण करने पर होता है, सुप्रीम कोर्ट ने घटना के विहीन Propagate इस शब्द का अर्थ स्पष्ट करके कहा कि ‘धर्मातर का अधिकार घटना में नहीं दिया गया है,’ सुप्रीम कोर्ट ने घटना के शब्दों का जो अर्थ लगाया है, उसे ही घटना बदल कहते हैं, यह जानना आवश्यक है।
कोर्ट का कहना है कि ‘जबरदस्ती या धोखे से किये गये धर्मान्तर से राज्यों की सुव्यवस्था खतरे में आ सकती है, इसलिए राज्यों की सुव्यवस्था के लिये राज्यों से संबंधित सातवें शेडयूल के सूची 2 के विषय के अनुसार कानून बनाने का अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट ने मध्यप्रदेश की धर्मातर विरोधी कानून के विरोध में की गई अपील नामंजूर की है, लेकिन उड़िसा कानून की सिविल अपील को स्वीकार किया है, इसलिए ये दोनों भी कानून वैद्य हैं। ऐसा सुप्रीम कोर्ट का निर्णय है, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से क्रिश्चन, सिख, मुस्लिम, बौद्ध, जैन इन पर पाबंदी आयी है। 
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भाष्य करते हुये सुप्रीम कोर्ट के वकील राजीव धवन ने कहा है-
1.    धर्मांतर विरोधी कानून द्वेष भावना से सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिये है,
2.    यह कानून अल्पसंख्यक, दलित एवं आदिवासियों का पुलिस एवं न्याय व्यवस्था द्वारा हृास करने हेतु है,
3.    सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के परिणाम का अंदाज नहीं किया है,
4.    इस कानून के प्रक्रिया में दंड का प्रावधान है।
5.    धर्मांतर को अपराध समझना मूलतः गलत है
6.    हिंदुत्व का प्रचार राजकीय स्वार्थ के लिये करने वाला यह कानून है, इस कानून का गलत उपयोग होने की संभावना है, इसलिए यह कानून रद्द होना चाहिये। 
धर्मांतर के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का सत्ताधारी पक्षों ने अपना राजनीतिक फायदा उठाते हुये कई राज्यों में धर्मातर विरोधी कानून लागू किया है, भाजपा ने 2003 में गुजरात में धर्मांतर विरोधी कानून बनाया है, 2006 को छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान में कानून बनाया है, कांग्रेस ने भी 2006 को हिमाचल प्रदेश में यह कानून पास किया है, 1978 में अरुणाचल प्रदेश में भी यह कानून अमल में लाया है, 2002 को तमिलनाडु ने भी धर्मांतर विरोधी कानून पास किया है, लेकिन लोगों के प्रक्षोभ के कारण 2004 को उसे रद्द किया गया।
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि, अपराध होने के पहले जिस मजिस्ट्रेट को धर्मांतर की सूचना देना इसका मतलब अपराध मान्य करना ऐसा नहीं होता’, अपराधी ने स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने का प्रश्न घटना कलम 20(3) में है, लेकिन उस संबंध में पूछताछ नहीं की गई, ऐसा निर्णय में कहा गया है भारतीय दंड संहिता के किसी भी कालम में उपलब्ध होने के पूर्व उसकी सूचना जिला मजिस्टेªट को देने का प्रावधान नहीं है, लेकिन धर्मांतर  विरोधी कानून में यह प्रावधान है, तथा अपराध होने के बाद जांच और दंड का भी प्रावधान है।       
स्वेच्छा से भी अगर धर्मांतर किया गया लेकिन उसकी सूचना जिस मजिस्ट्रेट को नहीं दी गई तो उसे अपराध माना गया है। इस संदर्भ में भारतीय दंड संहिता में प्रावधान न होते हुये भी स्वेच्छा से धर्मांतर करने वाले पर जिला मजिस्ट्रेट को धर्मांतर की जानकारी देने का बंधन क्यों? 1976 में घटना के प्रारूप में धर्मनिरपेक्ष शब्द डालकर संशोधन किया तो फिर धर्मांतर विरोधी कानून क्यों?
फादर स्टनिसल्स के ऊपर कोर्ट में चलाया गया मामला यह व्यक्तिगत रूप का था, इसलिये इस मामले की तरफ अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम सिक्ख, जैन और पारसी इनका ध्यान नहीं गया, लेकिन भारत बौद्धमय करने का स्वप्न डाॅ. बाबा साहेब आंबेडकर ने बौद्ध समाज को दिया फिर उनका भी ध्यान इस मामले पर क्यों नहीं गया?
दिवंगत दादा साहेब गायकवाड इनके नेतृत्व में 1964 में देशव्यापी भूमिहीनों का सत्यागृह हुआ, जनवरी 1964 को प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा, सरकार के तरफ से यशवंतराव चव्हाण तथा रिपव्लिकन नेता इनमें बातचीत हुई। उस वक्त रिपव्लिकन पार्टी ने 11 मांगे रखी लेकिन सिर्फ निम्न 5 मांगे मंजूर की गई,
1.    सेंट्रल हाल में डाॅ. बाबासाहाब आंबेडकर का तैलचित्र लगाना,
2.    1964 तक बनी झोपड़ियों को पर्याप्त जगह दिये बगैर नहीं तोड़ना,
3.    भूमिहीनों को पंडित जमीनों का वितरण करना,
4.    बौद्धों के आरक्षण आदि सुविधायें देना,
5.    बैकलाॅग भरना यह मांगे मंजूर की गई,
बौद्धों को आरक्षण सुविधायें मान्य होने पर भी इस तरह का शासकीय आदेश राज्य में तथा केन्द्र में निकाला नहीं गया, रिपब्लिकन नेताओं ने भी इसके लिये अंत तक संघर्ष नहीं किया, धर्मांतर का कार्य भी अन्य प्रान्तों में बढ़ नहीं सका, पूरे देश में धर्मांतर का कार्य अगर बढ़ा होता तो इस मामले में देश के सभी बौद्धों का ध्यान गया होता, और धर्मांतर विरोधी कानून पास नहीं होता, धर्मांतर से बिहार में भी बौद्धों का आंदोलन खड़ा होना और बोद्धगया महाबोधी महाविहार आज बौद्धों के नियंत्रण में होता। संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानव अधिकारों का जाहिरनामा प्रकाशित किया है, उसमें 30 कलम है, इन कलमों को भारत सहित सभी राष्ट्रों ने मान्यता दी है, भारतीय राज्य घटना के 24(1) कालम में धर्म स्वतंत्रता का अधिकार दिया है, उसी तरह मानव अधिकार के 92वे कालम में भी धर्म स्वातंत्रता का अधिकार है। कलम 91 में कहा है कि ‘हरेक को विचार स्वातंत्र है, अपने सदस्य विवेक बुद्धि के अनुसार आचरण करने का स्वतंत्रका का अधिकार है। इस अधिकार में अपना धर्म या श्रद्धा बदलने का स्वातंत्र है, इस मानव अधिकार को अपाने के लिए भारत कटिबद्ध है, भारत सरकार ने भी 1993 को ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग’ की स्थापना की है, उनका कार्य मानव अधिकारों का संरक्षण करना यह है,
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा है कि ‘धर्मांतर का अधिकार नहीं है‘‘ लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघटना ने मानव अधिकार 98 में ‘धर्म बदलने का मानव अधिकार है’ ऐंसा कहां है, इस तरह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से विरोधाभाष निर्माण हुआ है।
केन्द्रीय मानवाधिकार आयोग ने मानव अधिकार 98 के अनुसार घटना में संशोधन करने का आदेश केन्द्र सरकार को देना चाहिए। इस तरह का निवेदन सभी मानवाधिकारों संघटन एवं सभी अल्पसंख्यक संघटनों ने केन्द्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य मानवाधिकार आयोग को देना चाहिए। मानव अधिकारों के लिये कार्य करने वाले संघटन एवं सभी अल्पसंख्यकों के संघटन ही संघर्ष करें तथा इस विषय पर संयुक्त निवेदन तैयार करके आयोग को दें।
धर्मांतर विरोधी कानून यह मानव स्वतंत्रता के ऊपर आघात है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा घटना में बदल किये जाने से यह प्रश्न मानवाधिकार का और सभी भारतीयों के लिए मानसिक स्वतंत्रता का हुआ है, इसलिए यह स्वतंत्रता की लड़ाई है, जो लोकशाही मार्ग से ही लड़ी जानी चाहिए। स्वतंत्रता को बंधिस्त किये जाने के कार्यों का दुनिया में हमेशा विरोध हुआ है, तथा अंत में स्वतंत्रता की मांग करने वालों की ही जीत हुई है।
यह धर्मातर विरोधी कानून रद्द हो इस संदर्भ में सभी अंतराष्ट्रीय बुद्धिस्ट संघटनों ने, अल्पसंख्यक एवं मानव अधिकारों के लिये कार्य करने वाली संघटनाओं ने मानवाधिकार की सभा में यह प्रश्न उठाकर चर्चा करनी चाहिये, धर्मांतर विरोधी कानून यह मानव को गुलाम बनाने का षड़यंत्र है। इसलिए मानवीय स्वतंत्रता के मूल्यों को मानने वाले सभी लोगों ने संघठित हो इस कानून के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए, मानवीय स्वतंत्रता के अधिकारों को बचाने आवाज बुलंद करनी चाहिए।
अशोक बोंदाडे
राष्ट्रीय निमंत्रक, समता सैनिक दल
आकृति अपार्टमेंट 935 वैशाली नगर, नागपुर-17
मोबाईल-9423630004





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