डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर का विदेशों में प्रभाव Dr. Pandurag parate Monday, April 22, 2019, 08:41 PM डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर का विदेशों में प्रभाव सन् 1912 महाराष्ट्र में स्वतंत्र आन्दोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया था। अंग्रेज सरकार ने भारतीयांे पर अत्याचार और हिंसा जोर-शोर से आरंभ कर दिया था। कई देशभक्त मौत के घाट उतार दिए गये। उस समय ऐसा लगता था कि अंग्रेज सरकार भारत को स्वतंत्र करवाने वाले इच्छुकों को कुचलने पर तुली थी। इन सब का परिणाम भाीमराव आंबेडकर के मन पर, दिल दिमाग पर हो रहा था। (1) एलफिस्टन काॅलेज मुम्बई से बी.ए. - भीमराव आंबेडकर ने सन् 1908 में एलफिस्टन काॅलेज मुम्बई में प्रवेश ले लिया। एक अछूत का काॅलेज में प्रविष्ट होना उस समय एक अनहोनी सी बात थी। परन्तु काॅलेज में भी छुआछूत की भावना ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। भीमराव आंबेडकर ने जनवरी 1913 में एलफिस्टन काॅलेज मुम्बई से फारसी और अंग्रेजी विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण किया, जो अछूत जाति के विद्यार्थी में से प्रथम विद्यार्थी थे। सन् 1913 में सूबेदार रामजी आंबेडकर बहुत बीमार पड़ गये। 02 फरवरी 1913 में उनका निधन हुआ। पिता की छत्र छाया हमेशा के लिए समाप्त हो गई। भीमराव आंबेडकर पर गहरा असर हुआ, फिर भी उन्होंने यह सह लिया और अपने जीवन रथ को आगे बढ़ाने का दृढ़ संकल्प लेकर संग्राम में उतर पड़ा। संयोग से बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ ने 1913 में चार छात्रों का चयन किया जिसमें भीमराव रामजी आंबेडकर का नाम था। 04 जून 1913 को भीमराव आंबेडकर ने प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसमें लिखा था। दस वर्षो तक बड़ौदा नरेश के रियासत में सेवा करेंगे। (2) अमेरिका में उच्च शिक्षा - जुलाई 1913 के तीसरे सप्ताह में न्यूयार्क (अमेरिका) पहुंच गए और कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिल हो गये। अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने वाले, आंबेडकर सर्वप्रथम महापुरूष थे। कोलंम्बिया विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध प्रोफेसर श्री. एडविन, और आर.ए. सेलिम्मन ने भीमराव आंबेडकर को शिक्षा प्राप्ति में बहुत सहायता की, दो वर्ष बहुत परिश्रम करके भीमराव आंबेडकर ने 1915 में ‘‘प्राचीन भारतीय व्यापार’’ (Ancient Indian Commerce) नामक पुस्तक लिखकर एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली। (3) कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा - भीमराव रामजी आंबेडकर ने अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र, इतिहास, दर्शन शास्त्र, मानव शास्त्र, आदि विषयों का ज्ञान अर्जित करने में जूट गये। शिक्षा उनके लिए तपश्चर्या, साधना बन गयी थी। भीमराव रामजी आंबेडकर ने सन् 1915 में उपर्युक्त विषयों पर एम.ए. की उपाधि कोलम्बिया विश्वविद्यालय से प्राप्त कर ली यह उनकी निष्ठा, लगन, कठीन साधना का ही फल था। सन् 1916 में ‘‘भारतीय जाति प्रथा’’ विषय पर प्रबन्ध लिखा, कोलम्बिया विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने उनका बहुत अभिनन्दन किया। साहस के साथ बढ़ते हुए कदम ने 1916 में उन्हे ‘‘भारत का राष्ट्रीय लांभअंश’’ (National Evident of India) नामक प्रबन्ध लिखा यह शोध प्रबन्ध कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने जून 1916 में स्वीकार कर लिया और पी.एच.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। उससे डाॅ. आंबेडकर को अधिक प्रतिष्ठा मिली। इस शोद्य प्रबन्ध में उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि ब्रिटिश सरकार की सारी नीतियाँ अंग्रेज उद्योगपतियों के हितो पर केन्द्रीत रही है। इस प्रबन्ध के महत्व को इस संदर्भ में आंका जा सकता है कि उन्हें "Royal Commission on Indian Curency" के समक्ष प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए आंमत्रित किया गया। यही प्रबन्ध बाद में "The Evolution of Provincian Finance in British India" के नाम से प्रकाशित हुआ। यह शोद्य प्रबन्ध उनकी किस्मत का एक अद्वितीय ज्ञानपुन्ज था, जिसने लेखन को अपार यश दिया। परतंत्र काल में ब्रिटिश नीति की आलोचना से उनकी राष्ट्रभक्ति का भी अनूठा उदाहरण माना जा सकता है। (4) लंदन में उच्च शिक्षा - भारत प्रथम विश्वयुद्ध के कीचड़ में फंसा हुआ था। डाॅ. आंबेडकर सही विद्यार्थी थे। छात्र जीवन में वे राजनीति से दूर रहना ही श्रेय समझते थे। उन्होंने अपना ध्यान अध्ययन पर केन्द्रीत किया और Lodon School of Economics and Political Science में प्रवेश लेने के लिए जून 1916 में लंदन चले आए। यहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में Doctor of Science की उपाधि के लिए गहरा अध्ययन आरंभ कर दिया। परन्तु इसी बीच छात्रवृत्ति का कार्यकाल समाप्त हो गया और निराश होकर उन्हें भारत वापिस आना पड़ा। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर 1921 तक शोद्य प्रबन्ध को प्रस्तुत करने की विशेष अनुमति उन्हें प्रोफेसर एडविन कैनन के माध्यम से मिल गयी। प्रोफेसर एडविन ने कहां कि जहां तक उन्हें जानकारी है कि किसी ने भी इस विषय पर इतनी गहराई से और विस्तृत रूप से खोज नहीं की है, जितनी भीमराव आंबेडकर ने की है। भारत मंत्री मैंटेगु को अछूतों की समस्या से अवगत कराने के लिए वें उनसे मिलें अपनी भेंट के विषय में कोल्हापुर नरेश को उन्होंने पत्र लिखा था। भारत मंत्री मैंटेगु नें उन्हें फिर से मिलने को कहा था। उन्होंने कहा कि मैं पढ़ाई छोडकर लौटना नहीं चाहता। मुझे वैयक्तिक कीर्ति की चाह नहीं है। समाज में मान-प्रतिष्ठा का साधन, रूपयो-पैसो से नहीं है। लोग इसकी निन्दा करते है, वें समस्या को बहुत ऊपर से देखते हैं। डाॅ. भीमराव आंबेडकर ने ‘‘डाॅक्टर आफ सांईस’’ की उपाधि के लिए ‘‘द प्रोब्लेम आफ रूपी’’ नामक शोद्य प्रबन्ध लिखा और बेरिस्टर की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लिया। इसी समय छत्रपति साहू महाराज का निधन हो गया। डाॅ. भीमराव आंबेडकर इससे बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखा दलितों का शुभचिंतक हमेशा के लिए खो गया। उन्हें प्रबन्ध को सुधारकर दोबारा लिखने के लिए कहा गया, उन्हें भारत लौटना जरूरी था। वें भारत लौटकर आए और चार माह में प्रबन्ध को सुधारकर पुनः लंदन भेज दिया। आखिर उन्हें ‘‘डाॅक्टर आफ सांईस’’ में पी.एच.डी. की उपाधि सन् 1916 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने प्रदान कर सम्मानित किया। डाॅ. भीमराव आंबेडकर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए बहुत परिश्रम करने पड़े, यह कथन सत्य है। उन्होंने सत्य, ज्ञान, भक्ति और वैराग्य को बुरी तरह दबोच दिया था। इसके पश्चात वे अपने प्रबंन्ध को सही न्याय दे पाने में सक्षम हुए। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि शोद्य प्रबन्ध को लोक प्रियता आगे बढ़ेगी। शिक्षा और साहित्य के बारे में डाॅ. आंबेडकर का दृष्टिकोण बहुत ही उच्च कोटी का माना जाता है। यदि उसका अनुसरण किया जा सके तो राष्ट्र-उत्थान के लिए बड़ा उपयोगी रहा है। इसके पश्चात आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक कार्यो का आरंभ किया। विभिन्न धर्मो का उन्होंने बहुत गहराई के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया और बौद्ध धर्म को अधिक उपयोगी समझा। उन्होंने संविधान में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, समता, बन्धुत्व न्यास आदि का समावेश किया। वें दुनिया के छठवें विद्वान माने जाते है। उनकी विद्वता की झलक प्रबन्ध में दिखाई देती है। अनेक प्रबन्धों के विषय में विशेष कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। उनका प्रभाव भारत पर ही नहीं विदेशों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ा है। इस उपर्युक्त उदाहरणों से विदेशों पर गहरा प्रभाव पड़ा है। डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर का शिक्षा के कारण प्रबन्धों के कारण, विदेशों पर गहरा प्रभाव, तथा छाप पड़ी है। वर्तमान में भारत में ही नहीं विदेशों में डाॅ. बाबासाहब आंबेडकर को याद किया जाता है, यह उनके कार्यो का, शिक्षा का, प्रबन्धों का, प्रभाव है। ऐसे महान युग पुरूष को कोटी-कोटी प्रणाम। डाॅ. पाण्डुरंग पराते (महाराष्ट्र) Tags : overseas Babasaheb Effect