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धर्म और धम्म में जमीन आसमान का फर्क है

Dr. M. L. Parihar

Friday, May 17, 2019, 07:33 AM
Dhamm and dharm

धर्म और धम्म में जमीन आसमान का फर्क है
धर्म (Religion) एक अस्पष्ट शब्द है जिसका कोई निश्चित अर्थ नहीं है इसके अनेक अर्थ है। कारण यह कि ‘धर्म‘ बहुत सी अव्यवस्थाओं से होकर गुजरा है। हर अवस्था में यह धारणा ‘धर्म‘ कहलाती है। ‘धर्म‘ की संकल्पना कभी निश्चित नहीं रही है। यह समय-समय पर बदलती आई है एक समय था जब बिजली, वर्षा, तूफान और बाढ़ जैसी घटनाएं आदिमानव की समझ से परे की बातें थी। ऐसी किसी भी प्राकृतिक आपदा पर काबू पाने के लिए जो भी कुछ टोना-टोटका किया जाता था, ‘जादू‘ कहलाता था। इसलिए ‘धर्म‘ को ‘जादू‘ समझा जाने लगा। ईश्वर, आत्मा, पूजा, धर्मानुष्ठान, कर्मकांड आदि धर्म है। तब धर्म के विकास में दूसरा चरण आया। इस चरण में ‘धर्म‘ का अर्थ आदमी के विश्वासों, धार्मिक कर्मकांड़ों, धर्मानुष्ठानों, प्रार्थनाओं और यज्ञ-बलियों के अर्थ में समझा जाने लगा। लेकिन ‘धर्म‘ की यह धारणा अमौलिक (नकली) है। ‘धर्म‘ का केन्द्र-बिन्दु इस विश्वास से आरंभ होता है कि दुनिया में कोई शक्ति अस्तित्व में है, जिसके कारण ये सभी घटनाएं घटती हैं और जिसे आदिमानव नहीं जानता था और न ही उसे समझ पाया था। इस अवस्था में पहुंचने पर ‘जादू‘ अपना अस्तित्व खो बैठा। आरंभ में यह शक्ति अपकारी थी किन्तु बाद में यह माना जाने लगा कि यह परोपकारी भी हो सकती है। ये विश्वास, कर्मकांड, धर्मानुष्ठान और यज्ञ-बलियां, हितैषी शक्ति को संतुष्ट करने के लिए और कुद्ध शक्ति को शांत करने के लिए दोनों प्रकार से आवश्यक थी। आगे चलकर वही शक्ति ‘ईश्वर‘, ‘परमात्मा‘ या ‘सृष्टा‘ कहलाई। ईश्वर, आत्मा, पूजा, धर्मानुष्ठान, कर्मकांड आदि धर्म है।        तब धर्म का तीसरा चरण आया, जब यह माना जाने लगा कि ईश्वर ने इस संसार की और आदमी की भी उत्पत्ति की है। इसके बाद धर्म का यह विश्वास पैदा हुआ कि हर आदमी की देह में एक ‘आत्मा‘ है, वह ‘आत्मा‘ नित्य है और वही इस संसार में आदमी के कर्मों के लिए ‘ईश्वर‘ के प्रति उत्तरदायी है। यही संक्षेप में धर्म की धारणा के विकास का इतिहास है। अब धर्म का यही अर्थ हो गया है और धर्म से यही भावार्थ लिया जाता है- ईश्वर में विश्वास, आत्मा में विश्वास की पूजा, गलती की दोषी आत्मा का सुधार, धर्मानुष्ठान, बलि आदि करके ईश्वर को प्रसन्न रखना।
धम्म से धर्म कैसे अलग है ?
         प्रज्ञा, करूणा, शील व मैत्री धम्म है बुद्ध जिसे ‘धम्म‘ कहते हैं वह मूल रूप में धर्म से सर्वथा भिन्न है। यूरोप के देववादी लोग इसे ‘रिलीजन‘ कहते है। दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। प्रश्न उठता है कि ‘धम्म‘ का क्या भाव है और यह ‘धर्म‘ (रिलीजन) से कैसे भिन्न है। कहा जाता है कि ‘धर्म‘ या ‘रिलीजन‘ व्यक्तिगत चीज है और आदमी को इसे अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। इसे सार्वजनिक जीवन में अपनी भूमिका नहीं निभाने देनी चाहिए। इसके विपरीत ‘धम्म‘ एक सामाजिक वस्तु है। यह मूल रूप से और आवश्यक रूप से सामाजिक है। ‘धम्म‘ का अर्थ ही सदाचरण है जिसका अर्थ है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ अच्छा सम्बन्ध। इससे स्पष्ट है कि यदि कही एक व्यक्ति अकेला है, तो उसे किसी ‘धम्म‘ की आवश्यकता नहीं। लेकिन जब दो व्यक्ति परस्पर सम्बन्ध बनाकर रह रहे है, तो उन्हें अवश्य ही धम्म को स्थान देना चाहिए, चाहे वे इसे पसंद करते है या नहीं। दोनों में से कोई एक भी इससे अलग नहीं रह सकता। दूसरे शब्दों में ‘धम्म‘ के बिना समाज का काम नहीं चल सकता।
आखिर ‘धम्म‘ क्या है और ‘धम्म‘ की आवश्यकता क्यों है ? बुद्ध के अनुसार धम्म के दो आधार तत्व हैं-प्रज्ञा तथा करूणा। प्रज्ञा क्या है ? प्रज्ञा किस लिए ? प्रज्ञा का अर्थ है (निर्मल) बुद्धि। बुद्ध ने प्रज्ञा की अपने धम्म के दो स्तम्भों में से एक माना है क्योंकि वे अंधविश्वास के लिए कही कोई स्थान नहीं छोड़ना चाहते थे। करूणा क्या है और करूणा किसलिए ? करूणा का अर्थ है दया, प्रेम। क्योंकि इसके बिना समाज न तो जीवित रह सकता है और न ही उन्नति कर सकता है। यही कारण है कि बुद्ध ने करूणा को अपने धम्म का दूसरा स्तंभ बनाया। बुद्ध के ‘धम्म‘ की यही परिभाषा है। बुद्ध के ‘धम्म‘ की परिभाषा धर्म से कितनी भिन्न, प्राचीन और फिर भी कितनी आधुनिक है। कितनी आदिम और फिर भी कितनी मौलिक। किसी से उधार नहीं ली गई फिर भी कितनी सच्ची। ‘प्रज्ञा‘ और ‘करूणा‘ का एक अनूठा सम्मिश्रण ही तथागत का ‘धम्म‘ है। ‘धर्म‘ और ‘धम्म‘ में बस यही अंतर है।
प्रस्तुति- डाॅ. एम.एल. परिहार





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