ख्वाहिश नहीं मुझे Sumedh Ramteke Thursday, September 12, 2024, 03:23 PM ख्वाहिश नहीं, मुझे मशहूर होने की," _आप मुझे "पहचानते" हो,_ _बस इतना ही "काफी" है। _अच्छे ने अच्छा और_ _बुरे ने बुरा "जाना" मुझे,_ _जिसकी जितनी "जरूरत" थी_ _उसने उतना ही "पहचाना "मुझे!_ _जिन्दगी का "फलसफा" भी_ _कितना अजीब है,_ _"शामें "कटती नहीं और_ -"साल" गुजरते चले जा रहे हैं!_ _एक अजीब सी_ _'दौड़' है ये जिन्दगी,_ -"जीत" जाओ तो कई_ -अपने "पीछे छूट" जाते हैं और_ _हार जाओ तो,_ _अपने ही "पीछे छोड़ "जाते हैं! _बैठ जाता हूँ_ _मिट्टी पे अक्सर,_ _मुझे अपनी_ _"औकात" अच्छी लगती है।_ _मैंने समंदर से_ _"सीखा "है जीने का तरीका,_ _चुपचाप से "बहना "और_ _अपनी "मौज" में रहना।_ _ऐसा नहीं कि मुझमें_ _कोई "ऐब "नहीं है,_ _पर सच कहता हूँ_ _मुझमें कोई "फरेब" नहीं है।_ _जल जाते हैं मेरे "अंदाज" से_, _मेरे "दुश्मन",_ -एक मुद्दत से मैंने_ _न तो "मोहब्बत बदली"_ _और न ही "दोस्त बदले "हैं।_ _एक "घड़ी" खरीदकर_, _हाथ में क्या बाँध ली,_ _"वक्त" पीछे ही_ _पड़ गया मेरे! _सोचा था घर बनाकर_ _बैठूँगा "सुकून" से,_ -पर घर की जरूरतों ने_ _"मुसाफिर" बना डाला मुझे!_ _"सुकून" की बात मत कर- -बचपन वाला, "इतवार" अब नहीं आता! _जीवन की "भागदौड़" में_ _क्यूँ वक्त के साथ, "रंगत "खो जाती है ?_ -हँसती-खेलती जिन्दगी भी_ _आम हो जाती है! _एक सबेरा था_ _जब "हँसकर "उठते थे हम, -और आज कई बार, बिना मुस्कुराए_ _ही "शाम" हो जाती है! _कितने "दूर" निकल गए_ _रिश्तों को निभाते-निभाते, _खुद को "खो" दिया हमने_ _अपनों को "पाते-पाते"। _लोग कहते हैं_ _हम "मुस्कुराते "बहुत हैं, _और हम थक गए_, _"दर्द छुपाते-छुपाते"! _खुश हूँ और सबको_ _"खुश "रखता हूँ,_ _ *"लापरवाह" हूँ ख़ुद के लिए_* *-मगर सबकी "परवाह" करता हूँ। *_मालूम है_* *कोई मोल नहीं है "मेरा" फिर भी_* *कुछ "अनमोल" लोगों से_* *-"रिश्ते" रखता हूँ।* कविता संग्रहक - सुमेध रामटेके Tags : defect desire