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जो डर गया समझो मर गया

Ajay Narnavre

Sunday, August 8, 2021, 12:30 PM
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_*जो डर गया*_ |_*समझो मर गय*_ ||

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आचार्य रजनीश अर्थात *'ओशो'* ने लिखी एक किताब *एस धम्मो सनंतनो* के प्रश्न और उत्तर के विभाग में *भगवान बुद्ध* पर दिए अपने प्रवचनों में ओशो ने *महामारी* का जिक्र किया है.......

रजनिश ओशो को अमेरिका से आया शिष्य सवाल पूछा *"अमेरिका में फैले हैजा(विसूचिका) वायरस महामारी से कैसे बचे ?"*

*ओशो* ने कहा *" यह प्रश्न ही आप गलत* पूछ रहे हो, *प्रश्न* ऐसा होना चाहिए था कि *महामारी* के कारण मेरे मन में *मरने का जो डर बैठ गया है* उसके सम्बन्ध में कुछ कहिए! अर्थात इस *डर* से कैसे बचा जाए...?

क्योंकि *वायरस* से *बचना* तो बहुत ही *आसान* है,

लेकिन जो *डर* आपके और *अमेरिका* के *अधिकतर लोगों* के *भीतर* बैठ गया है, उससे *बचना* बहुत ही *मुश्किल* है।

अब इस *महामारी* से कम लोग, इसके *डर* के कारण लोग ज्यादा *मरेंगे*.......।

*’डर’* से ज्यादा खतरनाक इस *दुनिया* में कोई भी *वायरस* नहीं है।

इस *डर* को समझिये, 

अन्यथा *मौत* से पहले ही आप एक *जिंदा* लाश बन जाएँगे 

उदाहरण के लिए....... *वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य* का उदाहरण देते है......

*तथागत बुद्ध के समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी लोग मर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान बुद्ध को वैशाली लाए। तथागत बुद्ध ने लोगों को जीवन के सूत्र और उपाय बताये, यह हो रहीं मृत्यु को महामारी डर सबसे बड़ा कारण बताया । भगवान बुद्ध की उपस्थिति और उपायों से मृत्यु का तांडव नृत्य धीरे-धीरे शांत हो गया था*.........

ओशोरजनीश अपने शिष्यों को समझाया कि.... 

हम बड़े बैचेन हो जाते हैं जब *महामारी फैल जाए, लोग मरने लगे* लेकिन एक बात पर हम ध्यान कभी ही नहीं देते हैं‍ कि, *जो प्राणी जन्म लेता है वह मृत्यु भी साथ लेकर आता है यह "तथागत बुद्ध का सनातन सत्य है।"*........

*महामारी का और क्या अर्थ होता है?*

जहां बचने का कोई उपाय नहीं, जहां कोई औषधि काम नहीं आएगी। *साधारण बीमारी को हम कहते हैं कि जहां औषधि काम आ जाए। महामारी को कहते हैं जहां कोई औषधि काम न आए। जहां हमारे सब उपाय टूट जाए और मृत्यु अंततः जीते*

विश्व में महामारी तो सदियों से फैली हुई है। इस पृथ्वी पर हम मरघट में ही है। यहां मरने के अतिरिक्क्त और कुछ होने वाला नहीं है। *वैशाली के लोगों ने ये कभी न देखा था कि सभी लोग मरते हैं। यदि ये देखा होता तो भगवन बुद्ध को पहले ही बुला लाते कि हमें कुछ जीवन के सूत्र दे देते कि हम भी जान सकें की जीना कैसे है।*

ओशो रजनीश जीवन जीने का एक सूत्र उदाहरण देकर बताते हैं कि.......

जंगल मे एक *साँप* अपने *ज़हर* की तारीफ़ कर रहा था कि मेरा डसा पानी भी नहीं माँगता! पास बैठे *मेंढक* उसका मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि *लोग तेरे खौफ से मरते हैं, ज़हर से नहीं*....

दोनों की *बहस मुकाबले में बदल गई* अब यह तय हुआ कि किसी *इंसान को साँप छुप कर काटेगा* और *मेंढक फुदककर सामने आएगा* और दूसरा ये कि *इंसान को मेंढक काटेगा और साँप फन उठाकर सामने आएगा*...

तभी इतने में एक राहगीर आता दिखाई दिया उसको साँप ने छुप के काटा और टांगों के बीच से मेंढक फुदक के निकला, *राहगीर मेंढक देख के ज़ख़्म को खुजाते हुए चला गया ये सोचकर कि मेंढक ही तो है और उसे कुछ नहीं हुआ*.....

अब दुसरे राहगीर को मेंढक ने छुप के काटा और साँप फन फैलाकर सामने आ गया वह *राहगीर दहशत के मारे जमीन पर गिर गया और उसने वहीं दम तोड़ दिया*....

इसी तरह दुनिया में हर रोज़ हज़ारों इंसान मरते हैं, जिनको अलग-अलग बीमारियां होती हैं, कितने तो बगैर बीमारी के ही मर जाते हैं....

*डर को दिमाग में बिठाकर मौत से पहले अपनी ज़िन्दगी को मौत से बदतर ना करें* जीने की चाहत अपने आप में पैदा करेंगे तो कोई मुश्किल कोई परेशानी आपका कुछ नही बिगाड सकती....

ओशो रजनीश ने आगे कहा......

वास्तविक रूप से देखां जांय तो वायरस कम और मौत का डर ज्यादा है। यह एक *सामूहिक पागलपन* है, जो एक *अन्तराल* के बाद विश्व में हमेशा घटता आरहता है और यह समय-समय पर *प्रगट* होता रहता है। *व्यक्तिगत पागलपन* की तरह *कौमगत*, *जातिगत* *राज्यगत*, *देशगत* और *वैश्विक* *पागलपन* भी होता है। इस में *बहुत* से लोग या तो हमेशा के लिए *विक्षिप्त* हो जाते हैं या फिर डर से।*मर* जाते हैं ।

ऐसा इतिहास में पहले भी *हजारों* बार हुआ है, और आगे भी होता रहेगा और आप देखेंगे कि आने वाले बरसों में युद्ध *तोपों* से नहीं बल्कि *जैविक हथियारों* से लड़ें जाएंगे। इसलिये मैं फिर कहता हूं हर समस्या *मूर्ख* के लिए *डर* होती है, जबकि *ज्ञानी* के लिए *अवसर*!!

इस *महामारी* में आप *घर* बैठिए, *पुस्तकें पढ़िए*, शरीर को कष्ट दीजिए और *व्यायाम* कीजिये, *फिल्में* देखिये, *योग* कीजिये और एक माह में *15* किलो वजन घटाइए, चेहरे पर बच्चों जैसी ताजगी लाइये। अपने *शौक़* पूरे कीजिए।

मुझे अगर *15* दिन घर बैठने को कहा जाए तो में इन *15* दिनों में *30* पुस्तकें पढूंगा और नहीं तो एक *बुक* लिख डालूंगा, ये *’भय और डर’* का मनोविज्ञान सब के समझ नहीं आता है।

*’डर’* में रस लेना बंद कीजिए...

आमतौर पर हर आदमी *डर* में थोड़ा बहुत रस लेता है, *अखबारों* और *TV* के माध्यम से *डर* को ज्यादा बढ़ावा मिलता है। आप *महामारी* से *डरते* हैं तो आप भी *भीड़ क समूह* का ही हिस्सा बन जाते हैं।

*ओशो* कहते है...TV पर खबरे सुनना या *अखबार* पढ़ना बंद करें। ऐसा कोई भी *विडियो* या *न्यूज़* मत देखिये जिससे आपके भीतर *डर* पैदा हो।*महामारी* के बारे में बात करना *बंद* कर दीजिए, 

*डर* भी एक तरह का *आत्म-सम्मोहन* ही है। 

एक ही तरह के *विचार* को बार-बार *घोकने* से *शरीर* के भीतर *रासायनिक* बदलाव होने लगता है और यह *रासायनिक* बदलाव कभी कभी इतना *जहरीला* हो सकता है कि आपकी *जान* भी ले ले;

*महामारी* के अलावा भी बहुत कुछ *दुनिया* में हो रहा है, उन पर *ध्यान* दीजिए;

*ध्यान-साधना* से *साधक* के चारों तरफ एक *प्रोटेक्टिव Aura* बन जाता है, जो *बाहर* की *नकारात्मक उर्जा* को उसके भीतर *प्रवेश* नहीं करने देता है, अभी पूरी *दुनिया की उर्जा* *नाकारात्मक* हो चुकी है.......

ऐसे में आप कभी भी इस *ब्लैक-होल* में गिर सकते हैं....ध्यान की *नाव* में बैठ कर हीं आप इस *झंझावात* से बच सकते हैं।

*शास्त्रों* का *अध्ययन* कीजिए, 

*साधू-संगत* कीजिए, और *साधना* कीजिए, *विद्वानों* से सीखें

*आहार* का भी *विशेष* ध्यान रखिए, *स्वच्छ* *जल* पीए,

*अंतिम बात:*

*धीरज* रखिए... *जल्द* ही सब कुछ *बदल* जाएगा.......

जब तक *मौत* आ ही न जाए, तब तक उससे *डरने* की कोई ज़रूरत नहीं है और जो *अपरिहार्य* है उससे *डरने* का कोई *अर्थ* भी नहीं है, 

*डर* एक प्रकार की *मूढ़ता* है, अगर किसी *महामारी* से अभी नहीं भी मरे तो भी *एक न एक दिन मरना ही होगा, और वो एक दिन कोई भी दिन हो सकता है* इसलिए *विद्वानों* की तरह *जीयें*, *भीड़* की तरह नहीं !!"

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संदर्भ : वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य (एस धम्मो सनंतनो)

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