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महिला धर्म के नाम पर मानसिक गुलाम

TPSG

Monday, July 8, 2019, 08:16 AM
Gulam

महिला धर्म के नाम पर मानसिक गुलाम

महिला को धर्म के नाम पर मानसिक गुलाम बनाया गया अब तक 
क्या आप को नही लगता ये ब्राह्मणवाद की साजिस है!
औरत की जो बहुत उदात्त कल्पनाएं की गयी हैं, वे उसके पुरुष की सहचरी होने की हैं। वह इससे अधिक स्वतंत्र हो गयी तो फिर तो उसे काली, चंडी का ही रूप दे दिया जाता है। फिर वह झगड़े-टंटे के लिए भले ही उपयोगी हो, परिवार बसाने के लिए, घर-संसार चलाने के लिए वह अनुपयुक्त हो जाती है। स्त्री का वह एक स्वतंत्र रूप उभरता है। देवी को सर्वशक्तिमान मान कर भी पूजा की जाती है। पर वहां भी वह आदिमाता, आदिशक्ति का ही रूप ले पाती है। स्वीकार उसे तब भी, नवदुर्गा बना कर ही किया जाता है। स्त्री जनन से जुड़ी है, इसलिए उसकी देवी, शक्ति आदि का जो भी रूप उभरता है, वह उसे जननी के रूप में ही रख कर बनता है। चाहे उसे तलवार पकड़ा दीजिए या कि त्रिशूल। चाहे उसे सिंह की सवारी दे दीजिए या नर मुंडों की माला पहनवा दीजिए या कि चाहे उसे शिव के ऊपर ही पैर रख कर खड़ा करवा दीजिए। भले ही कह दीजिए कि शिवा के बगैर शिव शव हैं।
उसके इसी जननी रूप को धर्म ने भी उसके पैरों का बंधन बना दिया है। वह छिन्नमस्ता है। उसने तो अपना सिर ही काट कर अपने हाथ में ले लिया है। वही साहचर्य के अच्छे और बुरे दोनों ही होने का प्रतीक है।
धर्म ने उसके जिस लोकलुभावन रूप को सामने रखा है, उसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण लक्ष्मी का रूप है। विष्णु के पांव दबाती बैठी हैं वे। विष्णु और लक्ष्मी का यह रूप वह सुखद कल्पना ही है, जो हर गृहस्थ (पुरुष) करता है। इसके बाहर औरत का कोई रूप हो गया तो फिर उसे स्वीकार करना कठिन हो जाता है। ऐसे ही अनेक रूप हैं, जो परिवारों को स्थिर करने के लिए धर्म ने संजोये हैं। सावित्री -सत्यवान का चरित्र है। सती अनुसूया का चरित्र है। सीता का चरित्र है। धर्म अनेक बार लगता है कि पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए बनाया हुआ विधान है। जरत्कारु के हवाले से इस बात के आह्वान तो आते हैं कि संतान उत्पन्न करना पुरुष की जिम्मेदारी है। पर हर कथा अंत में औरत को माया मान कर, त्याज्य मान कर ही खत्म होती है। जरत्कारु की कथा भी। कोई भी कथा इस बात का हवाला नहीं देती कि स्त्री के साथ यदि बराबर का सलूक नहीं किया गया, उसके जिस रूप को सामने रखा जा रहा है उस रूप को बनाये रखने के सरंजाम पुरुष ने नहीं संजोये तो फिर स्त्री को क्या करना चाहिए ?
मैं समझ नहीं पाता कि पुरुष के लिए छिन्नमस्ता न सही, आत्महंता जैसी कोई कल्पनाएं क्यों नहीं की जा सकीं ? मुंबई विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष डा. रतन कुमार पांडेय के निर्देशन में जीवन के अनेक पहलुओं पर शोध हुए हैं। उनमें से एक एम.फिल, वंदना सिंह का साहित्य और पत्रकारिता में फैले लिंग भेद को लेकर रहा है। उस शोध में इस बात को बहुत बेहतर ढंग से व्याख्यायित किया गया है कि जब तक भगवान पुरुष रूप में, पिता रूप में है, स्त्री उसकी माया ही बन कर रहने को विवश है। ईश्वर निराकार तो हो सकता है पर होगा पुरुष ही।
- संग्रहक - टीपीएसजी





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