लोकसभा में दलितों की दमदार आवाज क्यों सुनाई नहीं देती Bureau report Wednesday, May 1, 2019, 10:37 PM भारत की संसदीय प्रणाली में एक चिंताजनक ट्रेंड दिख रहा है. वह है, लोकसभा में दलित समाज के तेज़-तर्रार नेताओं की अनुपस्थिति का. कहने को तो हर आम चुनाव में अनुसूचित जाति के 84 और अनुसूचित जनजाति के 47 सांसद लोकसभा में चुनकर आते हैं, लेकिन पिछले एक दशक में लोकसभा की संरचना और कार्य प्रणाली पर नज़र दौड़ाने पर ऐसे सांसदों की सक्रियता में कमी साफ़-साफ़ दिखती है. खासकर अपने समाज से जुड़े मुद्दों पर वे आमतौर पर खामोश ही रहते हैं या फिर उनमें उस कौशल का अभाव है, जिसके बिना संसद में आवश्यक हस्तक्षेप करना मुमकिन नहीं हो पाता. इस आम चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों ने दलित समाज से जिस तरह के उम्मीदवार उतारे हैं, उन पर नज़र दौड़ाने पर बालासाहेब प्रकाश अम्बेडकर के सिवाय ऐसा कोई उम्मीदवार नज़र नहीं आता है, जिसको सामाजिक न्याय से जुड़े जटिल मुद्दों की समझ हो या जो ऐसे सवालों पर मुखर रहा है. अगर प्रकाश अम्बेडकर इस आम चुनाव में जीत कर नहीं आते हैं, तो आने वाली लोकसभा में भी दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी ही दिखाई देगी. अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के सांसदों की ख़ामोशी की वजह क्या है? दलित समाज के अच्छे और तेज़ तर्रार लोग चुनकर क्यों नहीं आ रहे हैं? इस सवाल का सीधा जवाब है कि विभिन्न राजनीतिक दलों का दलित समाज के वरिष्ठ और तेज़ तर्रार लोगों को टिकट न देना, और इस समाज के वरिष्ठ नेताओं का लोकसभा की बजाय राज्यसभा के माध्यम से संसद पहुंचना. मिसाल के तौर पर राम विलास पासवान इस बार लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रहे हैं और उनकी योजना बीजेपी के समर्थन से राज्यसभा में आने की है. मायावती लंबे समय से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रही हैं. इस बार भी वे मैदान में नहीं हैं. मुमकिन है कि वे भी राज्य सभा में आएं. सीपीआई के नेता डी राजा भी राज्यसभा में ही होते हैं. रामदास आठवले भी राज्यसभा के रास्ते से संसद पहुंचे हैं. इसको हम अगर विभिन्न राजनीतिक दलों में सक्रिय दलित समाज से आने वाले वरिष्ठ नेताओं के नाम से समझें तो उसमें कांग्रेस से मल्लिकार्जुन खड़गे, मीरा कुमार, कुमारी शैलेजा, सुशील कुमार शिंदे, मुकुल वासनिक, पीएल पुनिया, प्रो भालचन्द्र मुंगेकर; बीजेपी से थावरचंद्र गहलौत, प्रो नरेंद्र जाधव, विजय सोनकर शास्त्री, डॉ संजय पासवान, विजय सांपला, रमा शंकर कठेरिया; बसपा से मायावती, अम्बेथ राजन, डॉ बलिराम, वीर सिंह, राजाराम; डीएमके से ए राजा; और सीपीआई से डी राजा का नाम प्रमुखता से शामिल किया जा सकता है. इस लिस्ट को बनाने के समय मुझे सपा, आरजेडी, जेडीयू, सीपीएम, टीएमसी, जेडेएस, टीडीपी, टीआरएस, एनसीपी, अकाली दल, आप और एआइडीएमके में दलित समाज का ऐसा कोई भी नेता दिखाई नहीं देता, जो कि संसदीय राजनीति में थोड़ा बहुत सक्रिय रहा हो या जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा होती हो. हो सकता है कि इनमें कोई अच्छा दलित नेता हो, लेकिन मीडिया की साइलेंसिंग का शिकार हो. बहरहाल, इस लिस्ट में से भी अगर दलित समाज के मुद्दों पर संसद के अंदर सक्रियता के आधार पर बात की जाय तो पीएल पुनिया, प्रो भालचन्द्र मुंगेकर, मायावती, डॉ बलिराम, अम्बेथ राजन, और डी राजा का ही नाम लिखा जा सकता है. बाक़ी ज़्यादातर दलित नेता यदा-कदा ही दलितों के मुद्दे पर कुछ बोलते हैं. डॉ संजय पासवान दलित मुद्दों पर सक्रिय तो हैं, लेकिन 13वीं लोकसभा में सांसद और बाजपेयी सरकार में मंत्री रहने के बाद भी पिछले कई चुनावों में उनको टिकट ही नहीं दिया गया. इसके अलावा, निवर्तमान लोकसभा में बीजेपी सांसदों में डॉ उदित राज काफ़ी सक्रिय रहे, लेकिन अंत समय में उनका टिकट कट गया. मायावती का ख़ुद लोकसभा चुनाव न लड़ना और अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ बलिराम और वीर सिंह को भी न लड़वाना, लोकसभा में दलित सांसदों की ख़ामोशी को और बढ़ाएगा. अब सवाल उठता है कि लोकसभा में दलित समाज के वरिष्ठ नेताओं का चुनकर जाना ज़रूरी क्यों है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें लोकसभा और राज्य सभा की शक्तियों में अंतर को समझना ज़रूरी है! ब्यूरो रिपोर्ट Tags : loksabha&rajyasabha Dalit