निर्दोष लोगों को जेल Vijay boudh Monday, March 22, 2021, 01:56 PM क्या राजनेताओं के दबाव में पुलिस, न्यायालय, निर्दोष लोगों को जेल भेजती हैॽ कोई भी बुद्धिजीवी, आर एस एस नरेंद्र मोदी के कुशासन जंगलराज बर्बरता भीड़तंत्र के खिलाफ बोलता है। सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लिखता है। या आंदोलन विरोध प्रदर्शन करता है, तो आर एस एस के दलाल, देश हित में संघर्ष करने वालों को देशद्रोही करार देते हैं, उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करा कर जेल भेजने में कामयाब हो जाते हैं ,और न्यायालय भी पुलिस के आधार पर देश भक्तों को बिना सोचे समझे जेल भेज देती है, जमानत पर रिहा नहीं कर पाती, इसी तरह से 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर, किसान आंदोलन के चलते, आर एस एस, संघ के गुंडों ने हिंसा की,, उन्हें पुलिस कि साइबर सेल प्रशासन ने छोड़ दिया। और केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन भड़काने के झूठे आरोप में टूलकिट सोशल मीडिया पर साझा करने वाली बेंगलुरु की एक्टिविटीज पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा दायर कर, उसे गिरफ्तार कर, दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया गया। उसे 5 दिन की रिमांड पर भेजा गया। और उसके बाद उसे जेल में डाल दिया गया। दिल्ली हाईकोर्ट ने लोकतंत्र की गरिमा कायम रखते हुए, कहां कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार के सचेत प्रहरी होते हैं। उसे सिर्फ इसलिए जेल में नहीं डाला जा सकता है, क्योंकि वह सरकार की नीतियों से सहमत नहीं है। असहमति प्रत्येक नागरिक का अधिकार है। अब दिशा को जमानत दे दी गई। वहीं जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला के जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बयान के खिलाफ कुछ आर एस एस के दलाल ,देशद्रोहियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि, फारूक अब्दुल्ला की संसद सदस्यता रद्द किया जाए। उनकी सदस्यता जारी रहने से यह संदेश जाएगा कि भारत में देश विरोधी गतिविधियों को इजाजत दी जाती है। यह देश की एकता के खिलाफ होगा। जो मनुवादी संघ के गुंडे, देश में रोज, हिंदू, मुसलमान कर समाज में नफरत फैला कर देश की एकता को तोड़ने का पाप कर रहे हैं। वह देश भक्तों को देशद्रोही बताने में मे लगे हुए हैं। और पुलिस एवं निचली न्यायालय के माध्यम से समाजसेवी बुद्धिजीवियों को जेल में ठुसने का पाप कर रहे हैं। फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ दर्ज देशद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, कि सरकार की राय से जुदा, विचारों को अभिव्यक्ति को देश द्रोही नहीं कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी देशभक्तों की याचिका खारिज कर उन पर पचास ₹50000 जुर्माना लगाया है। देशद्रोह क्या हैॽ न पुलिस को ज्ञान है, नआर एस एस के दलालों को, बस जो भी बुद्धिजीवी मानवाधिकार कार्यकर्ता समाजसेवी अपने अधिकारों के लिए सरकार के जनविरोधी नीतियों के खिलाफ बोलता है, लिखता है, प्रदर्शन आंदोलन करता है, उसे देशद्रोही करार देना ही उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए देशद्रोह है। यदि कोई व्यक्ति या समूह सत्ता परिवर्तन किए जाने के उद्देश्य से देशविरोधी बयान देता है,, जनता, समाज को भड़काता है। और उससे भारी पैमाने पर हिंसा भड़कती है, तब देशद्रोह माना जाता है। फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने की ही तो बात कही थी। क्या उनके बयान से देश में हिंसा फैल गई थीॽ क्या देश का तख्ता पलट गया थाॽ सरकार भंग हो गईॽ नहीं,, तो फिर देशद्रोह क्यों लगाती है पुलिसॽ क्यों झूठे केस में जेल भेजती है सिविल न्यायालयॽ क्यों न्यायपालिका राजनीतिक षड्यंत्र को बिना सोचे समझे निर्दोष लोगों को जेल क्यों भेजती है। क्या न्यायालय का काम मात्र लोगों को जेल भेजने का हैॽ न्याय देने का या इंसाफ करने का नहीं हैॽ द प्रिंट editor-in-chief शेखर गुप्ता के अनुसार पुलिस राजनीति की मिलीभगत से देशद्रोह का आरोप किसी को भी जेल भेजने के लिए पसंदीदा हथियार है। न्यायपालिका ,,जेल नहीं बेल सिद्धांत,, को नकार रही है। आईपीसी के जानकार किसी क्राइम रिपोर्ट से पूछिए कि पुलिस वाले अपराध नियंत्रण के किस तरीके सेआपस में बात करते हैं। जिसमें उन्हें महारत हासिल हो गई है। इस तरीके को अपराध की वर्किंग कहते हैं। क्योंकि अपराध पर काबू पाने के पुराने तरीके पुलिसिया कार्रवाई मुकदमा आदि से मिलने वाले नतीजे और निश्चित ही होते हैं। जितना कम दर्ज किया जाए उतना अच्छा है। अपराध काबू में करने का यह सबसे सुरक्षित तरीका है। इसी तरह हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना अगर न्यायपालिका की बड़ी जिम्मेदारी है तो गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया व्यक्ति अदालत से न्याय पाने के लिए हैबियस कापर्स यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर भरोसा कर सकता है, और अगर उसे यह मौका नहीं दिया जाता तो यह व्यवस्था को उतना ही दूषित करता है, जितना अपराध की गिनती न करके उसके कम होने का पुलिस द्वारा दावा करना। आज अगर आप यह ऐसे शख्स है, जिसे शासक वर्ग ना पसंद करता है। तो वह आसानी से ऐसे पुलिस अधिकारी खोज सकता है, जो आपके ऊपर आईपीसी की गंभीर धाराओं के तहत मामला दायर कर सकता है। भले ही उनके पास लेश मात्र सबूत भी ना हो फिर भी आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे आपको मजिस्ट्रेट के सामने तो जरूर पेश करेंगे,, जो आसानी से पकड़ लेगा की सबूत तो है ही नहीं और फिर उसका आदेश दिवंगत न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर के इस कथन के आधार पर ही होगा कि ,,,नियम तो बेल देना ही है जेल भेजना नहीं,,,,। लेकिन सच तो यह है कि इस धारणा का लगातार कत्ल हो रहा है। हाल में ऐसा 3 बार हुआ मुनव्वर फारुकी, नवदीप कौर वह दिशा रवि के मामले देखे जा सकते हैं, पहले को इस आरोप में जेल भेज दिया, कि वह निस्संदेह आपत्तिजनक चुटकुले सुना था। दूसरा मामला नवदीप का है, जिस पर हत्या की कोशिश का आरोप लगा और तीसरा मामला है देशद्रोह का,, तीनों में प्रथम मजिस्ट्रेट ने ऐसे कार्य किया, मानव सिद्धांत यह है की नियम तो जेल भेजने का है जमानत तो मेरे ओहदे के दायरे से बाहर है। नवदीप कौर को पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इस आधार पर जमानत दी की उसे धारा 307 लगाए जाने का कोई वास्तविक कारण नहीं दिखा, इससे पहले नवदीप ने जिले में जिन दो अदालतों का दरवाजा खटखटाया उन्हें यह समझ नहीं आया, इसलिए उसे बेवजह 45 दिन जेल में रहना पड़ा। फारूकी को जमानत देने से तीन बार मना कर दिया गया, सुप्रीम कोर्ट ने उसे मुक्ति दी। फिर भी उसे जेल में 36 दिन गुजारने पड़े। दिशा रवि की जमानत के आदेश में जज धर्मेंद्र राणा ने जो कहा उसका स्वागत है। लेकिन क्रूर सच्चाई यही है कि एक नागरिक 10 दिन स्वतंत्रता से वंचित रही दिल्ली पुलिस का दावा है कि उसकी गिरफ्तारी में कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया। अब इसे दिशा की परिस्थिति के नजरिए से देखें जरा सोचिए कि इस मजिस्ट्रेट ने उसे जमानत दे दी होती, दूर शहर की लड़की अपनी जमानत के लिए किसी को कैसे खड़ा करतीॽ अमेज़न प्राइम वीडियो की इंडिया कंटेंट चीफ अर्पणा पुरोहित सीरीज तांडव के मामले में कई f.i.r. का सामना कर रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट जज ने इस मामले में दिल दहलाने वाली टिप्पणी की है, अर्जी देने वाली के काम बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। उसे अग्रिम जमानत देकर उसके जीवन तथा स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती, यह सब लोकतांत्रिक संवैधानिक गणतंत्र में सिखा रहे हैं, जहां पहला सिद्धांत यही है, कि हर व्यक्ति के अधिकार सर्वो परि है। संभव है अर्पणा को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल जाए, यह न्याय भी होगा ।और उसका उपहास भी, क्योंकि 2014 के अरुणेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों में गिरफ्तारी पर सख्त कसौटी तय की थी, जिसमें 7 साल से कम की जेल की सजा का प्रावधान है। फर्निश पर दहेज उत्पीड़न की धारा लगी थी। वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, जिसने यह व्यवस्था दी कि जिस मामले में 7 साल की जेल से कम सजा का प्रावधान हो उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को आश्वस्त होना पड़ेगा की गिरफ्तारी दूसरा अपराध रोकने सबूत नष्ट होने से बचाने या गवाहों को दबाव से बचाने के लिए की जा रही है। इसे उपवास ही मानेंगे,क्योंकि न्याय से इस तरह वंचित अधिकतर लोगों के पास ऊंची अदालत तक पहुंचने के साधन नहीं होंगे। वे पहुंच भी पाए तो जेल में पहले ही कई हफ्ते बिता चुके होंगे। वास्तव में अदालत अगर अर्नेश कुमार के मामले में बनाई गई कसौटी पर जोर भी दे तो पुलिस राजनीति मिलीभगत इसकी परवाह नहीं करेगी जिन्हें वे जेल में देखना चाहते हैं। उनके लिए ,,पसंदीदा हथियार है देशद्रोह का आरोप,,, जिसके लिए उम्र कैद की सजा मुकर्रर है। अगर न्याय भी संख्याबल के आधार पर मिलने लगेगा तो यह भीडतंत्र हो जाएगा। जिसमें किसी को भी पकड़ कर उसका गला घोटा जा सकता है। इसी तरह से जेएनयू के छात्र संघ नेता क्रांतिकारी विचारक बुद्धिजीवी कन्हैया लाल की आवाज को दबाने उन पर देशद्रोह का झूठा मुकदमा दर्ज किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार में चल रहे जंगलराज में दलित क्रांति के नेता चंद्रशेखर आजाद, एस आर दारापूरी को रासुका के तहत जेल में ठूस दिया गया। वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कथित हत्या की झूठी साजिश में भीमा कोरेगांव एल्गार परिषद मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज, वरवर राव सहित 15 बुद्धिजीवियों समाजसेवियों को अर्बन नक्सली करार देकर उन्हें जेल में डाल दिया गया है। अभी फरवरी में वरवर राव को जमानत दी गई है। मुंबई हाई कोर्ट ने कहा कि हम आंख मूंदकर अन्याय होते देख नहीं सकते, सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट के कुछ ऐतिहासिक निर्णय से मेरा पुनः विश्वास जाग उठता है, अन्यथा मैंने तो न्याय की आस ही छोड़ दिया है। क्योंकि मेरे साथ आज तक अन्याय ही हुआ है ,मुझे न्याय नहीं मिला। साथियों राजनेताओ के दबाव में पुलिस प्रशासन एवं न्यायपालिका निर्दोष जो सरकार की नीतियों के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष करते हैं लड़ते हैं लिखते हैं बोलते हैं उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र के तहत किसी पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर जेल भेज दिया जाता है या किसी को नक्सली कर करार देकर या किसी को आतंकी बता कर जेल में ठूंस दिया जाता है और उनकी जिंदगी तबाह कर दी जाती है। इसलिए इस अन्याय के खिलाफ इस व्यवस्था के खिलाफ हम सबको लड़ना पड़ेगा संगठित संघर्ष करना पड़ेगा। अन्यथा कोई भी व्यक्ति जनहित के लिए आवाज नहीं उठा सकेगा, संघर्ष नहीं कर सकेगा, इसलिए तमाम देश के बुद्धिजीवी, कानून विद शिक्षाविद साहित्यकार लेखक पत्रकार सामाजिक कार्यकर्ता मानवाधिकार कार्यकर्ता संगठित संघर्ष कर इस साजिश को बेनकाब किए जाने एकजुट हो जाओ । विजय बौद्ध संपादक दि बुद्धिस्ट टाइम्स भोपाल Tags : conspiracy political judiciary civil courts police government country statement Jammu and Kashmir