डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर की धम्म यात्रा Dr. Pandurag parate Sunday, June 2, 2019, 08:24 AM ड़ाॅ आम्बेड़कर कहते हैं कि मेरे पिताजी कबीर पंथी के अनुयायी होने से, आध्यात्मिक वातावरण ने भी उसमें एक समसरता प्रदान की जिसकी समतावादी वृत्ति भीमराव आंम्बेड़कर के मन में समा गई। भीमराव सुबह-संध्या पूजा पाठ करते थे, और परिवार के प्रत्येक छोटे-बड़े सदस्य का इसमें सम्मिलित होना अनिवार्य था। रामजी को दृष्टि दूरदर्शी होने से बच्चों को धार्मिक और नैतिकता का पाठ पठाया करते थे। बचपन से ही भीमराव आम्बेड़कर के दिलो दिमाग पर कबीरदास की छत्र-छाया बनी रही। कबीरदास जी समाज सुधारक थे, छुआछूत को नहीं मानते थे, अंधविश्वास का विरोध करते थे। इन सभी कारणों से ड़ाॅ. भीमराव आम्बेड़कर ने कबीरदास जी को पहला गुरू माना। ड़ाॅ. भीमराव ने चैथी कक्षा की परीक्षा सन् 1903 में याने उमर के 12 वर्ष में उतीर्ण की तब उनके गुरू केलुसकर जी का उन्हें बड़ा स्नेह मिला। भीमराव को अम्बावड़े के स्थान पर आम्बेड़कर नाम दे दिया, साथ में हस्तलिखित भगवान बुद्ध की पुस्तक भेंट देकर सम्मानित किया। उनके दिल दिमांग पर पुस्तक का गहरा असर पड़ा और वह भविष्य वाणी सत्य हो गयी। वे पिताजी से कहते थे राम, कृष्ण, शिव, गणपति मुझे अच्छे नहीं लगते है। मुझे बुद्ध चरित्र पढ़ना अच्छा लगता है, इस तरह से वे बचपन से ही बुद्ध की ओर आकर्षित हुए। 13 सितम्बर 1933 को भीमराव आम्बेड़कर ने अपने पिताजी को एक पत्र लिखा की मैं भविष्य में हिंदू धर्म में नहीं रहूंगा। सिख, ईसाई, जैन, इस्लाम आदि धर्म में भी नहीं रहूंगा मेरी इच्छा बौद्ध धर्म में अधिक है। पिताजी ने 1934 में दादर मुम्बई में मकान बनाया उसका नाम रखा राजगृह। 13 अक्टुबर 1935 में येवला में प्रतिज्ञा की थी कि मैं हिंदू धर्म में जन्मा हूं लेकिन हिंदू रहकर नहीं मरूंगा। धर्म परिवर्तन की घोषना कर दी, इसकी चर्चा सारे भारत में बिजली के करन्ट के समान फैल गई। मई 1939 में धर्म परिवर्तन के संबंध में दादर बम्बई में एक बैठक हुई। उस बैठक में बौद्ध धर्म को अधिक उपयुक्त समझा। 1945 में महाविद्यालय शुरू किया गया जिसका नाम रखा सिद्धार्थ। ड़ाॅ. बाबा साहेब को संविधान के ड्राटींग कमेटी में सर्वानुमतों से अध्यक्ष चुना गया, अध्यक्ष ही नहीं संविधान के शिल्पी भी थे। संविधान को उन्होंने 114 दिनों में पास कराया। 5 दिसम्बर 1947 को संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन हुआ जिसमें बाबा साहेब का बड़ा ही प्रभावशाली भाषण हुआ। उन्होंने संविधान में सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, समता, बन्धुत्व और न्याय देने वाला सच्चा मार्ग बौद्ध धम्म में ही है। यह उनके मन की चाह थी। श्री पी. एल. परसू ने ‘‘इसेन्स आॅफ बुद्धिज्म’’ इस पुस्तक की द्वितीय आवृति 10 मार्च 1948 को स्वयं के खर्चे से प्रकाशित किया और पुस्तक का प्रकाशन बाबा साहेब ने लिखा। सन् 1948 में मुद्रा पर अशोक चिन्ह, ध्वजा पर अशोक चक्र, और राष्ट्रपति भवन में बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लिखा है। 26 नवम्बर 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मर्पित करते है। 1950 कलकŸाा के महाबोधि पत्रिका में बुद्ध और उनका धम्म का भविष्य यह लेख लिखा। 25 मई 1950 को सिलोन के परिषद में भाग लिया। 26 जनवरी 1950 को भारत देश पूरी तरह से आजाद हुआ । 1951 को महाविद्यालय के लिए अलर्बट और मेनकाऊ दो मकान खरीदे जिसका नाम आनन्द और बुद्ध भवन रखा गया। 1951 में औरगांबाद में महाविद्यालय आरम्भ किया गया, नाम मिलिंद रखा गया। 1951 में ‘‘बुद्ध और उनका धम्म’’ नामक पुस्तक का लिखान आरम्भ किया। बुद्ध और उनका धम्म लिखकर समाज में परिवर्तन दिखाई देने लगा। बुद्ध धम्म वैज्ञानिक तत्वों पर आधारित है, यह बाबा साहेब ने स्पष्ट कर बताया। तथागत भगवान बुद्ध ने पंचशील, चार आर्य सत्य, अष्टागिंक मार्ग यह सब मूल विचार है, जीवन परिवर्तन का मार्ग है। संसार में किसी ने यह विचार पहली बार बताया है। मेरा धम्म सुआख्यात है, संसार में सभी बंधनों से मुक्त करने वाला है, ये निवार्ण की ओर ले जाना वाला है। बुद्ध और उनका धम्म से ज्ञात होता है कि उनकी बौद्धिकता में महान सामर्थ का परिपाक है। यह ग्रंथ समाज के घर-घर में पहूंच गया है। 1951 में ‘‘बौद्ध उपासना पाठ’’ नामक पुस्तक प्रकाशित किया। ‘‘गाॅस्पेल आफ बुद्ध’’ 500 पृष्ठ का उसकी 80 प्रतियाँ प्रकाशित कर बुद्ध धम्म के अध्ययन के लिए समीक्षा के लिए भेज दिया। 3 दिसम्बर 1954, ब्रम्हदेश में बौद्ध धर्म परिषद में भाग लिया। 1955 में स्वर्गीय वा. गो. आपटे लिखित ‘‘बौद्ध पहले कौन थे’’ इस ग्रंथ की पुनःमुद्रण कर प्रकाशित किया। 1952, 1954 में लोक सभा के चुनाव के लिए खड़े रहे लेकिन उन्हें यश प्राप्त नहीं हुआ। हिंदू कोड़ बिल पास नहीं हो पाया। उनकी यह यात्रा बुद्ध धम्म की ओर अग्रसर होते रही। उनके जीवन में अनेक चढ़ाव-उतार पर वे कभी डगमगायें नहीं। उनका मन बुद्ध धम्म की ओर था फिर भी उन्होंने हिंदू, ईस्लाम, क्रिश्चन, बुद्ध, जैन, सिख आदि धर्मों का गहराई से अध्ययन किया। 21 वर्षो का यह समय कैसे गुजर गया यह बाबा साहेब को कभी महसुस नहीं हुआ। धम्म दीक्षा के लिए कुशीनगर के 80 वर्षीय वयोवृद्ध महा-स्थवीर ‘‘ऊ’’ चन्द्रमणी जी का नाम ड़ाॅ. भदन्त आनन्द कौशल्यायन जी ने सुझाया था और ड़ाॅ. बाबा साहेब आम्बेड़कर मान गए। दीक्षा के लिए नागपुर की पावन भूमि का चयन किया गया। 13 अक्टूबर 1956 को दीक्षा भूमि पर पूर्ण रूप से तैयारी हुई, पत्र परिषद लिखा गया। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर के पवित्र भूमि पर महाथेरो ‘‘ऊ’’ चन्द्रमणी द्वारा बुद्ध धम्म की दीक्षा ग्रहण की, बुद्ध के, धम्म के, शरण जाकर उसी दिन पांच लाख अनुयायिओं को बाईस प्रतिज्ञाएँ, त्रिशरण, पंचशील देकर बौद्ध धम्म में दीक्षित किया। मानो ऐसा लगता था कि वंसुधरा ने सफेद वस्त्र धारण किया दीक्षा भूमि का सारा वातावरण शांतमय, सुखमय, आंदोल्लास से भरा हुआ था। बाबा साहेब ने प्रतिज्ञा की थी कि अगर मैं कुछ दिन जीवित रहा तो सारे भारत को बौद्धमय करूंगा। यह दिन भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया हैं। 15 अक्टूबर को चन्द्रपूर में जाकर लाखों अनुयायीओं को बोद्ध धम्म कि दीक्षा दी। उनका धम्म परिवर्तन का प्रभाव समाज पर गहरा पड़ा और समाज में परिवर्तन दिखाई देने लगा। 14 नवम्बर 1956 को काठमांडू नेपाल में बुद्धिष्ट सम्मेलन में भाग लेने गए। वहां उन्होंने बौद्ध धम्म और कार्लमाकर््स पर गंभीर रूप से भाषण दिया। इस तरह बाबा साहेब की धम्म यात्रा रही है। जिसे बाबा साहेब के सभी कार्यों को याद करते है। - डाॅ. पांडूरंग पराते, नागपुर Tags : Kabirdas Bhimrao Ambedkar superstitions untouchability reformer umbrella childhood