महिषासुर कौन थे Pratap Chatse Tuesday, May 16, 2023, 12:13 PM महिषासुर कौन थे? महिषासुर के बारे में बहुजनों में काफी भ्रम है| कुछ लोग पुराणों के आधार पर महिषासुर को ऐतिहासिक राजा मानते हैं| महिषासुर इस काल्पनिक मिथकीय पात्र का वास्तविक इतिहास सामने लाने के उद्देश्य से यह लेख लिखा गया है| सबसे पहले हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि, महिषासुर नामक कोई व्यक्ति या राजा इतिहास में नहीं हुआ है| क्योंकि महिस, महिस्य, महिसक नाम के अनेक राजवंश तथा प्रदेश संपुर्ण भारत में मिलतें है, ऐसा इतिहासकार डी. सी. सरकार ने बताया है| (The Geography of ancient and Medieval India, D. C. Sircar, 1960, p. 189) मध्यप्रदेश में महिष राज्य था जिसकी राजधानी महिष्मति नगरी थी (Harivamsa, I. 14) इसी तरह, ओरिसा में मिले सन 824 के ताम्रपत्र अभिलेख में महिसक विषय (मतलब महिसक जिला) का जिक्र मिलता है| खारवेल ने ओरिसा के अभिलेख में खुद को "महिसकधिपती सिरि सद" कहा है| (History of Odisha, Manas Kumar Das, p. 38) इसी तरह, पश्चिम बंगाल के मिदनापुर को प्राचीन महिसा प्रदेश कहा जाता है| (Chronology of the Bhaumakaras, p. 66) इसी तरह, दक्षिण भारत के मैसूर प्रदेश को दिपवंस (VIII.5, महावंस, XII. 3) में "महिसमंडल" कहा गया है, जहां पर सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्खु महादेव को भेजा था और उन्होंने वहाँ पर 40 हजार लोगों को बौद्ध अनुयायी बनाया था और 40 हजार लोगों को बौद्ध भिक्खु बनाया था| इससे पता चलता है कि, महिष, महिश, महिस्य, महिसक यह शब्द संपुर्ण भारत में प्रस्थापित हो चुके थे| भारत के विभिन्न महिसक प्रदेशों में वहाँ के शासकों ने खुद को महिसक, महिस्य, महिस नाम अपनाए थे| दक्षिण भारत में चुटु सातवाहन कुल के महिस राजाओं ने खुद को 'महिसक राजा' घोषित कर दिया था और वो बौद्ध थे| चुटु सातवाहन वंशी राजा मान ने अपनी मुद्राओं पर खुद को "शक्यमानोभवद्राजा महिषांणा महिमति" मतलब "शाक्यमान महिसक राजा" ऐसा लिखा है| (The Indian History Quarterly, Vol. XXVI, No. 1, March 1950, p. 219) चुटु सातवाहन शासक बौद्ध थे और वे खुद को "शाक्यमान महिसक" बताते थे| इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, महिसक, महिस्य, महिस, महिष यह सभी शब्द शाक्यमुनि बुद्ध से संबंधित है| गांधार प्रदेश में राजा सेनवर्मा ने बनवाये बौद्ध स्तुप में एक खरोष्ठी लिपि का अभिलेख मिला है, जिसमें राजा सेनवर्मा ने खुद को "इसमहोकुलदे" बताया है| "उत्तरसेनपुत्रे वसुसने ओदिरिय इसमहोकुलदे" ऐसा उनका अभिलेख है, जिसका अर्थ है, "इसमोह कूल के उत्तरसेन के पुत्र वसुसेन ने यह लेख लिखा है"| (Solomon, 2003B: 39-51) पहली सदीं (1st AD) का गांधारी भाषा की खरोष्ठी लिपि में लिखित एक प्राचीन ग्रंथ मिला है, जिसका वर्णन बौद्ध ग्रंथ महावस्तु से मिलता जुलता है और वह अभी अमेरिका में वाशिंगटन डी. सी. के लायब्रेरी ओफ कोन्ग्रेस के कब्जे में है| उस ग्रंथ में तथागत बुद्ध को "इसमाहवत्स साकसिंहो" मतलब इसमाहवंशी शाक्यसिंह बुद्ध कहा गया है| (Sanskrit Iksvako, Pali Okkaka and Gandhari Ismaho, Richard Solomon, p. 203-204) उपरोक्त ग्रंथ में तथागत बुद्ध के "इक्क्ष्वाकू" राजवंश को ही गांधारी भाषा में "इसमाहो" कहा गया है| उसी ग्रंथ में लाईन 9e में लिखा है "इ.. (स) महोरयकुलसंभवे" मतलब "इस महोराज कुल के वंशज" ऐसा अर्थ होता है| आगे चलकर, इसमहो शब्द अक्षरों के उलटफेर से "महोईस" शब्द में बदल गया और बाद में महिस, महाईस, महिसक शब्दों में तब्दील हुआ| बुद्ध को खरोष्ठी में इसमहो कहा जाता था, जिससे यह सभी शब्द बने है| इसलिए महिस, महिस्य, महाईस, महिसक यह सभी शब्द बुद्ध से संबंधित शब्द है| महिसासक नामक बौद्ध पंथ सम्राट अशोक के पहले हुई कालाशोक की दुसरी संगिती में पैदा हुआ था| महिसासक मतलब धरती पर धम्म स्थापित करने वाले बुद्ध| महि मतलब धरती, सासन मतलब धम्म और सासक मतलब धम्म की स्थापना करनेवाले तथागत बुद्ध| महिस, महिस्य, महिसक, महिसासक इन सभी शब्दों में "महि" शब्द common है| इसलिए, महिसक, महिसासक, महिस, महिस्य इन सभी शब्दों का अर्थ "भुमिपुत्र बुद्ध" ऐसा होता है| ज्ञान प्राप्ति के समय मारा ने जब बुद्ध को बताया की मेरे बाजु में मेरी संपुर्ण मारसेना है, लेकिन बोधिवृक्ष के नीचे बैठने के तुम्हारे दावे के समर्थन में तुम्हारे बाजू में कौन हैं? तब बुद्ध ने मारा को उत्तर दिया कि मेरे बाजू में धरती माता है| बुद्ध के ऐसा कहते ही बडी़ खुंखार गर्जना के साथ धरती माता ने मारा पर हमला किया, जिससे डरकर मारा और उसकी संपुर्ण सेना भाग गयी और बुद्ध सर्वोत्तम ज्ञानी घोषित हुए| बुद्ध और धरती के इस संयुक्त युद्ध को "मारविजय" कहा जाता है| इस मारविजय में बुद्ध धरती (महि) के सबसे बडे़ ज्ञानी (इश) बने, इसलिए उन्हें "महाईस, महिस, महिसक, महिसासक" कहा जाने लगा| बौद्ध धर्म के खिलाफ घृणा अभियान चलाकर ब्राम्हणों ने बौद्ध धर्म को भारत से खत्म किया| घृणा अभियान का मुख्य सूत्र था "प्राचीन गौरवशाली बौद्ध इतिहास को मिटाकर काल्पनिक पौराणिक कथाओं के माध्यम से नया इतिहास समाज में स्थापित करना और इन कथाओं के माध्यम से बौद्धों का तथा बौद्ध विरासत का ब्राम्हणीकरण कर समाज में ब्राम्हण वर्चस्व स्थापित करना"| काल्पनिक पुराणकथाओं में जानबूझकर बौद्ध सम्राटों का गौरवशाली विजयी इतिहास दुर्लक्षित किया गया और उसकी जगह पर बहुजनों के पराजय का इतिहास लिखा गया| यह काम गुप्तकाल में शुरू हुआ और आगे निरंतर जारी रहा, जिससे पुराणों की संख्या शेकडों में बढती गई और उसमें समय के साथ निरंतर एडिटिंग जारी रहा| यही कारण है कि, गुप्तकाल में हमें दुर्गा देवी का नाम नहीं मिलता, बल्कि बौद्ध तारा देवता का नाम मिलता है| गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की याद में "श्री चंद्रगुप्तम" नाट्य लिखा गया था लेकिन उसमें दुर्गा देवी का नाम नहीं मिलता| चंद्रगुप्त द्वितीय ने महिला का रुप धारण कर शक राजा को मार दिया था| इसी तरह, अंतिम शुंग राजा को उसके कण्व मंत्री ने महिला का रुप धारण कर मार दिया था| इसी तरह, महिला के रूप में शत्रु हमला करते थे और कभी कभी महिलाओं का विषकन्या के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता था| लेकिन गुप्तकाल में ब्राम्हणों ने ओरिसा के जाजपुर पर कब्जा किया और बौद्ध क्षेत्र जाजपुर को काल्पनिक विरजा देवी के नाम से विरजा क्षेत्र घोषित किया और उसी विरजा देवी को बाद में दुर्गा देवी कहा जाने लगा था| इसका मतलब यह है कि, दुर्गा देवी गुप्तोत्तर काल में पैदा हुई थी| (Sidelights on history and culture of Orissa, Manmath Nath Das, 1977, p. 364) ओरिसा के भौमकार राजा वज्रयानी बौद्ध थें| इसलिए, उनके कार्यकाल में ही 5 वी सदीं के दरमियान जाजपुर में विरजा देवी की स्थापना हुई थी| इससे स्पष्ट होता है कि, विरजा बौद्ध तांत्रिक देवता थी| तिसरी सदीं के बौद्ध तांत्रिक ग्रंथ "साधनमाला" में विरजा देवी को "वज्रतारा" देवता कहा गया है| (Sadhanamala, Vol. I, p. xvii) वज्रयानी भौमकार लोग बौद्ध देवता पर्णसबरी की भी पूजा करते थे और ओरिसा के सबर आदिवासी उस बौद्ध देवता की "सर्वसावरानम भगवती" मतलब सभी सबरों की भगवती देवी के नाम से पुजते थे| (EI,XXIX, 1951-52, P. 169-74) इसका मतलब यह है कि, उस समय ओरिसा में वज्रयानी बौद्ध धर्म चरम पर था| बिहार के बुद्धगया की तरह ओरिसा का जाजपुर महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र था, इसलिए उसे दुसरी बुद्धगया भी कहा जाता था| जाजपुर पर गुप्तकालीन 4 थी सदीं में गुहा राजा का वर्चस्व था, जो बौद्ध राजा थे| इसी बौद्ध राजा गुहाशिव ने जाजपुर में बुद्ध का दंत अवशेष सुरक्षित रखा था और फिर युद्ध में जान देकर अपनी पुत्री के हाथों वह अवशेष सिलोन भेजा था| (History and culture of Orissa, p. 364) इसी गुहाशिव बौद्ध राजा के वंशज ओरिसा के "भौमकार शासक" कहलाए, जिन्होंने खुद परमसुगत, परमतथागत जैसे नाम अपनाए थे| इससे हमें पता चलता है कि, भौमकार राजे कट्टर बौद्ध थे| भौमकार मतलब भुमिपुत्र होता है| इन्हीं भौमकारों की बौद्ध वज्रतारा या विरजा देवी 8 वी सदीं में दुर्गा देवी के रूप में विकसित की गई| (Sidelights on history and culture of Orissa, p. 353) इसका मतलब यह है कि, बौद्धों ने ही उनकी वज्रतारा देवता को पहले विरजा देवी और बाद में दुर्गा देवी कहना शुरू कर दिया था| इससे स्पष्ट हो जाता है कि, दुर्गा देवी बौद्धों की देवता है| बौद्ध धर्म का पतन करने के लिए ब्राम्हणों ने बुद्ध को 9 वी सदीं में विष्णु का 9 वा अवतार घोषित किया और उस अवतार को बुद्ध का असुर अवतार बताया| विष्णु पुराण बताता है कि, असुरों को मिसगाईड करने के लिए विष्णु ने बुद्ध का असुर अवतार धारण किया और सभी असुरों को नरक पहुंचा दिया| इसका मतलब यह है कि, ब्राम्हणों ने पुराणों के माध्यम से बुद्ध को "असुर" कहना शुरू कर दिया था| सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रसार संपुर्ण दुनिया में कर दिया था और बुद्धपदों की और त्रिरत्नों की पूजा सभी तरफ शुरू कर दी थी| इस तरह, बुद्ध के इस विश्व विजय को भरहुत के शिल्पों में तीन बुद्धपदों के रूप में अंकित किया गया है| (Gaya and Buddhagaya, Barua, p. 63) इन शिल्पों को देखकर बौद्ध लोग यह समझते थे की बुद्ध ने अपने तीन पदों में विश्व को जित लिया है| पहले पद में आकाश, दुसरे पद में धरती और तिसरे पद में पाताल लोक जित लिया, इसलिए बुद्ध को "त्रिभुवनेश्वर" भी कहा जाता है| (Archeological remains of Bhubaneshwara, Panigrahi, p. 190) बौद्धों की इसी कल्पना के आधार पर ब्राम्हणों ने वामन पुराण लिखकर काल्पनिक वामन की तिन पदों में काल्पनिक बलिराजा पर विजय लिखा और बुद्ध के त्रैलोक्य विजय को काउंटर किया| जिस तरह बुद्ध के त्रैलोक्य विजय को चुराकर ब्राम्हणों ने उनका काल्पनिक वामन विजय बनाया और बलिराजा को पाताल में भगाने की झूठी कथा बनाई, उसी तरह ब्राम्हणों ने बौद्धगया में सम्राट अशोक द्वारा बनवाऐ गए बुद्धपदों को विष्णु के विष्णुपद घोषित किया और उसके समर्थन के लिए काल्पनिक गयासुर की कथा लिखी| (Gaya and Buddhagaya, Barua, p. 63) बुद्धपदों को विष्णुपद घोषित करना मतलब पदों के माध्यम से बुद्ध को पराजित करना है| इसलिए, बुद्धपदों को विष्णुपद बताकर ब्राम्हणों ने भागवत पुराण, विष्णु पुराण में लिखा की विष्णु ने अपने पद से गयासुर को हराया| गयासुर का सिर बुद्धगया में था, नाभि जाजपुर में थी इसलिए जाजपुर को नाभिगया कहा जाता है और गयासुर के पैर ओरिसा के महेंद्रगिरी पर्वत पर थे| इसका मतलब यह है कि, बुद्धगया की तरह जाजपुर और महेंद्रगिरी पर्वत महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल थे और 9 वी सदी के बाद वहाँ पर ब्राम्हणों ने कब्जा कर उस नाजायज कब्जे को जायज ठहराने के लिए गयासुर की काल्पनिक कथा लिखी| बुद्ध के महिसक, महिसासक, महिस्य नामों से भारत के विभिन्न क्षेत्रों के बौद्ध लोग खुद को महिसक, महिस या महिस्य कहते थे| महाराष्ट्र में महिसक बुद्ध की लोग म्हसोबा के नाम से पुजा करते थे, तो बंगाल के कैवर्त लोग खुद को महिस्य कहते थे| बौद्ध धर्म संपुर्ण प्राचीन भारत में फैला हुआ था, इसलिए अलग अलग प्रदेशों के बौद्ध लोग खुद को शकमाह, महाईसपुत्र, महिस्य, महिसक ऐसे अलग अलग नामों से खुद को बताते थे| (The people and culture of Bengal, a study in origins, Vol. II, part 1, p. 158, 882) महिसक लोग बौद्ध होने के कारण उन्हें गुप्तोत्तर काल में शुद्र घोषित किया गया था| महिस क्षत्रिय थे लेकिन उन्होंने ब्राम्हणों को महत्व देना बंद कर दिया था इसलिए राजा सागर (समुद्रगुप्त) के मंत्री ब्राम्हण वशिष्ठ ने उन्हें शुद्र घोषित किया था| (उपरोक्त, p. 924) महाभारत (XIII.33.19-21) भी कहता है कि, ब्राम्हणों का विरोध करनेवाले महिसक, द्रविड़, जैसे लोग शुद्र बन गए थे| इस तरह, गुप्त काल में महिसक बौद्धों को शुद्र बनाया गया था और गुप्तोत्तर काल में उनके आदर्श बुद्ध को असुर देवता अर्थात महाईस असुर बनाया गया| उपर हमने देखा है कि, बुद्ध को "महाईस" कहा जाता था, उसके साथ "असुर" शब्द जोडा गया और "महाईस असुर" अर्थात "महिषासुर" यह काल्पनिक पात्र बन गया| इस तरह, बुद्ध को पौराणिक काल में गयासुर और महिषासुर कहा गया| इसका मतलब यह है कि, गयासुर या महिषासुर कोई ऐतिहासिक राजा या व्यक्ति नहीं है, बल्कि घृणा में बुद्ध को दिए गए अपमानजनक नाम है| विष्णु पुराण बताता है कि, बुद्ध को जमीन के अंदर दफनाने के लिए सभी देवता बुद्ध के सिर पर बैठ जाते हैं लेकिन फिर भी बुद्ध का सिर कंपन मारने लगता है| तब विष्णु अपनी गदा को गयासुर के सिर पर रखता है, जिससे गयासुर का सिर हिलना बंद हो जाता है| बुद्ध के महत्वपूर्ण धम्मस्थल बोधगया को काल्पनिक विष्णु के नाम से कब्जे में करने के लिए ब्राम्हणों ने इस तरह गयासुर की काल्पनिक कथा बनाई है| (Gaya and Buddhagaya, p. 63) इसी तरह, ओरिसा में जाजपुर दुसरा महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र था, जहाँ पर बुद्ध के दंत अवशेष रखें गए थे| दंत अवशेष के कारण उसे दंतपुर, दांजपुर, और बाद में जाजपुर नाम पडा़| बुद्ध के महाईस नाम से उसे महिस प्रदेश भी कहा जाता था, क्योंकि वहाँ पर महिसासक बौद्ध मत का प्रभाव अधिक था| इसलिए, 4 थी सदीं में जाजपुर को "महिसकी" कहा जाता था और वहाँ पर भौमकार राजाओं के पुरखे राजा गुहा का राज था जो बौद्ध धर्मी थे| (Sidelights on history and culture of Orissa, p. 80) जिस तरह बोधगया के नाम से पुराणों में बुद्ध को गयासुर कहा गया, उसी तरह महिस नाम से बुद्ध को महिसासुर कहा गया| बोधगया में जो बुद्धपद था, उसको विष्णुपद घोषित कर उसी पद के नीचे विष्णु ने गयासुर के सिर को नीचे जमीन में दबा दिया ऐसी काल्पनिक भ्रामक कथा ब्राम्हणों ने पुराणों में लिखी और उसका जोरदार प्रचार किया| इससे बुद्ध का गया में मारविजय का असली इतिहास दब गया और गयासुर के काल्पनिक पराजय का इतिहास समाज में स्थापित हो गया| इसी तरह, जाजपुर में बुद्ध के महत्वपूर्ण अवशेष होने के कारण सम्राट अशोक ने वहाँ पर बड़ा स्तुप बनवाया था जिसे ललितगीरी स्तुप कहा जाता है और वह महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका था| 10 वी सदी में जाजपुर में "श्री चंद्रादित्य विहार समग्र भिक्खु संघ" कार्य कर रहा था| (Situating Viraja Kshetra and it's environs in the Orissa Historiography, Dr. Atul Chandra Pradhan, p. 108) इस तरह, जाजपुर महत्वपूर्ण बुद्ध केंद्र होने के कारण बुद्ध के महाईस नाम से उसे "महिस प्रदेश" भी कहा जाता था और इसी महिस नाम से बुद्ध को वहाँ पर पुराणों ने महिसासुर कहा| इस तरह, बुद्ध से संबंधित स्थलों के नाम से पुराणों ने काल्पनिक नाम और कथानक बनवाए| गया के नाम से गयासुर और महिस नाम से महिसासुर कहा गया| जाजपुर में तांत्रिक बौद्ध लोग उनकी बौद्ध देवता "वज्रतारा" की पुजा करते थे| कुब्जिका तंत्र में बताया है कि, जाजपुर की विरजा देवता वास्तव में वज्रतारा तांत्रिक देवता थी| (उपरोक्त, p. 108) जाजपुर के भौमकार राजा बौद्ध राजा थे लेकिन दसवीं सदीं में ओरिसा के सोमवंशी राजा ययाति प्रथम ने जाजपुर पर अपना वर्चस्व जमाया और वहाँ पर दस हजार ब्राम्हणों को कन्याकुब्ज (कनौज) से बुलाकर स्थापित किया| (उपरोक्त, p. 108) इन ब्राम्हणों ने अपनी उपजिवीका के लिए जाजपुर के बौद्ध स्थलों का ब्राम्हणीकरण शुरू किया| (Kulke, 1978, p. 125-37) जाजपुर बौद्ध स्थल पर अपना कब्जा जमाने के लिए इन ब्राम्हणों ने वहाँ पर राजा ययाति की मदद से बडे़ बडे़ यज्ञ किए और बौद्ध तांत्रिक देवता का ब्राम्हणीकरण शुरू किया| बुद्ध से संबंधित महिस नाम दबाने के लिए उन्होंने विराज देवी का महत्व बढाना शुरू किया और उसके लिए 15 वी सदी में "विरजा महात्म्य" ग्रंथ लिखा| इस ग्रंथ में बौद्ध देवता विरजा को ब्राम्हणों की देवी विरजा घोषित किया गया और वह महिस के महिसासुर पर कैसा विजय प्राप्त करतीं हैं इसका काल्पनिक वर्णन किया| 3 सदीं से बौद्धों ने महिलाओं को धम्म में शामिल करने के उद्देश्य से तारा देवता को सामने लाया था| तारा को वज्रतारा, हरिततारा ऐसे अलग अलग नाम है| बौद्ध तंत्रयान को काउंटर करने के लिए ब्राम्हणों ने भी देवी पुजा शुरू की और उसे शाक्त पंथ कहने लगे| वज्रयान में देवीयों को बोधिसत्व की शक्ति समझा जाता था और उस शक्ति के माध्यम से बोधिसत्व अपनी बोधि प्राप्त करते थे| (Goddeses within and beyond the Three cities, p.28) बोधिसत्व की शक्ति को ब्राम्हणों ने ब्राम्हणवादी देवों की शक्ति के रूप में अपनाया और उसके लिए 7 वी सदीं में "देवी महात्म्य" ग्रंथ लिखा| उसमें अलग अलग देवीयां अलग अलग असुरों को कैसे मारती है इसका काल्पनिक वर्णन मिलता है| ओरिसा के जाजपुर में सबर लोग वज्रतारा की पुजा करते थे| इसलिए, ब्राम्हणों ने बौद्ध देवता विरजा को भी उनकी देवीयों में शामिल किया| विष्णु पुराण में विरजा देवी को वर्णन लिखा गया और वह महिस के महिसासुर को मारकर जाजपुर में विरजा क्षेत्र का कैसे निर्माण करती है इसके संदर्भ में काल्पनिक कथा लिखी| (Sidelights on the history and culture of Orissa, p. 352) बाद में विरजा देवी को दुर्गा देवी बताकर उसका विरजा नाम भी बाद कर दिया और दुर्गा देवी महिसासुर को मारकर पराजित करतीं हैं इस कथा का प्रचार प्रसार किया गया| वास्तव में, विरजा और तारा देवी एक ही है और दोनों बौद्ध देवता है| लेकिन ब्राम्हणीकरण के माध्यम से ब्राम्हणों ने बौद्ध देवताओं को ब्राम्हण समर्थक बताया और वह देवता बौद्ध असुरों को मारती है, ऐसी काल्पनिक कथाएँ देवी महात्म्य, देवीपुराण, विरजा महात्म्य जैसे ग्रंथों के माध्यम से समाज में स्थापित कर दी| इस तरह, वास्तविक इतिहास और पुराणों का काल्पनिक इतिहास भिन्न भिन्न है| वास्तविक इतिहास में कहीं पर भी हिंसक संघर्ष नहीं मिलता, बल्कि धिरे धिरे ब्राम्हणीकरण के माध्यम से ब्राम्हणों ने बौद्ध स्थलों पर कब्जा कर दिया था| जाजपुर को 4 थी सदीं से 15 सदीं तक विरजा क्षेत्र में बदल दिया गया था| इस तरह, अत्यंत धिमी गति से बौद्ध स्थलों का ब्राम्हणीकरण किया गया| 10 वी सदी तक बौद्धों का जाजपुर और विरजा क्षेत्र पर प्रभाव था| बुद्ध की "मारविजय" कथा भारत में और संपुर्ण दुनिया में अत्यंत प्रसिद्ध थी| म्यांमार, सिलोन, नेपाल, चीन, जापान, थायलंड जैसे बौद्ध देशों में सभी उत्सवों में तथा महत्वपूर्ण कार्यों की शुरुआत में बुद्ध के मारविजय का पठन किया जाता था और शाम को नाटक के रूप में प्रस्तुत किया जाता था| (A study of the history and Cult of the Buddhist Earth deity in Mainland Southeast Asia, Elizabeth Guthrie, 2004, p. 1, 6, 25) चीनी यात्री ह्वेनसांग भी बताते हैं कि, भारत में सभी तरह मारविजय का उत्सव मनाया जाता है| (उपरोक्त, p. 25) सम्राट अशोक ने मारविजय के दिन ही अपना धम्म विजय अभियान शुरू कर दिया था| बाद में दस पारमिताओं की मदद से दस बुराईयों पर विजय पाकर बोधि प्राप्त करने की तंत्रयानी बौद्ध संकल्पना भी बुद्ध के मारविजय पर ही आधारित थी, जिसे आजकल नौरात्र उत्सव के रूप में महिलाएं मनाती है| इस तरह, बुद्ध से संबंधित मारविजय अत्यंत महत्वपूर्ण बौद्ध संकल्पना थी और सभी तरह फैली हुई थी| बुद्ध की मारविजय कथा को दबाने के लिए और बौद्ध समाज तथा बौद्ध स्थलों पर कब्जा करने के लिए सबसे पहले बुद्ध की मारविजय कथा को बाहर करना जरूरी था| इसलिए मारविजय को काउंटर करने के उद्देश्य से ब्राम्हणों ने पुराण लिखें और उसमें खुद को विजयी दिखाने के दुष्ट हेतु से देव असुर संग्राम, राम रावण युद्ध, देवी असुर संग्राम, दुर्गा महिषासुर संग्राम जैसी अनेक मनघड़ंत काल्पनिक कथाएँ लिखी| इन काल्पनिक कथाओं को कुछ सदियों बाद लोग सच मानने लगे, जिससे बुद्ध का मारविजय गायब हुआ और उसकी जगह पर ब्राम्हणों का काल्पनिक ब्राम्हण विजय स्थापित हुआ, बौद्ध धर्म खत्म हुआ और बौद्ध लोग ब्राम्हणवादी हिंदू बने| आज भी जिस विजयादशमी, दशहरा, नौरात्र उत्सवों को मनाया जाता है, यह सभी उत्सव बुद्ध के मारविजय से संबंधित है| बुद्ध ने ब्राम्हणवादी बुराईयों का प्रतीक मारा को हराकर अच्छाई के प्रतीक कल्याणकारी धम्म का निर्माण कर दिया था| इसलिए, विजयादशमी या दशहरा को अच्छाई की बुराई पर जीत कहा जाता है| इसलिए, काल्पनिक पौराणिक कथाओं को बाद कर बहुजनों ने इन उत्सवों को प्राचीन बौद्ध तरीके से मनाना चाहिए| महिषासुर, गयासुर, दुर्गा यह सभी ब्राम्हणवादी प्रतीक बहुजनों के लिए अपमानजनक प्रतीक है| महिषासुर और गयासुर बुद्ध का अपमान करने के उद्देश्य से बनवाये गए काल्पनिक नाम है| दुर्गा को भी वेश्या के रूप में अपमानित किया गया है| बौद्ध देवता तारा आदिमाता समझी जाती थी और धम्म का प्रतीक थी| इसलिए, महिलाओं के लिए बौद्ध देवता तारा सम्मान का प्रतीक है और ब्राम्हणवादी देवता दुर्गा अपमान का प्रतीक है| अपना झूठा वर्चस्व बनाने के लिए और बहुजनों के विजय का वास्तविक इतिहास मिटाने के लिए देवासुर संग्राम, दुर्गा महिषासुर संग्राम, विष्णु गयासुर संग्राम जैसी झूठी और काल्पनिक कथाएँ ब्राम्हणों ने 7 वी 8 वी सदीं के बाद लिखी है| इन कथाओं में जरा सी भी सच्चाई नहीं है| इसलिए बहुजनों ने इन कथाओं को तथा उनके काल्पनिक प्रतीकों को नकारकर वास्तविक बौद्ध इतिहास को समझने का प्रयास करना चाहिए| यह लेख अत्यंत संक्षेप में लिखा गया है| आनेवाले दिनों में "महिषासुर कौन थे" इस विषय पर बहुत जल्द बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क के माध्यम से किताब प्रकाशित करेंगे| -डॉ. प्रताप चाटसे, बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क Tags : character Mahishasura historical king Mahishasura confusion