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सावित्री बाई फुले

TPSG

Tuesday, January 4, 2022, 02:10 PM
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सावित्री बाई फुले.

1.सावित्रीबाई फुले की परंपरा में

आज समाज-सुधारक और शिक्षिका सावित्रीबाई फुले (1831-1897) की जयंती है। वर्ष 1848 में अपने पति महात्मा जोतिबा फुले के साथ सावित्रीबाई फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। दलित और शूद्रातिशूद्र समुदाय के लोगों को और महिलाओं को साक्षर बनाने के क्रम में उन्होंने जोतिबा के साथ मिलकर 1851 में और उसके बाद भी अनेक स्कूल खोले। सावित्रीबाई और जोतिबा द्वारा चलाए जा रहे इन्हीं स्कूलों की एक छात्रा मुक्ता साल्वे ने 1855 में लिखे एक निबंध में महार और मांग समुदाय की हालत बयान करते हुए उनके शोषण और जातिवाद के विरुद्ध अपनी दमदार आवाज़ उठाई थी।

सावित्रीबाई फुले को मराठी में लिखी उनकी मर्मस्पर्शी कविताओं के लिए भी जाना जाता है। जिस तरह 1855 में लिखे अपने प्रसिद्ध नाटक में जोतिबा ने शिक्षा को ‘तृतीय रत्न’ बताया था, उसी तरह सावित्रीबाई फुले ने अपनी एक कविता में शिक्षा को सच्चा आभूषण और स्त्रियों का गहना बताते हुए लिखा :

स्वाभिमान से जीने हेतु बेटियों पढ़ो-लिखो खूब पढ़ो/पाठशाला रोज जाकर नित अपना ज्ञान बढ़ाओ

हर इंसान का सच्चा आभूषण शिक्षा है/हर स्त्री को शिक्षा का गहना पहनना है

जोतिबा और सावित्रीबाई फुले की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले नेताओं में डॉ. बीआर अंबेडकर से पूर्व विठोबा रामजी मूनपांडे, किसन फागोजी बंसोडे, कालीचरण नंदगांवली आदि प्रमुख रहे हैं। किसन फागोजी बंसोडे और कालीचरण नंदगांवली ने भी जोतिबा की तरह ही लड़कियों के लिए स्कूल खोले। कहना न होगा कि सावित्रीबाई और जोतिबा फुले के संघर्षों ने ही बीसवीं सदी के तीसरे दशक में शुरू हुए डॉ. अंबेडकर के आंदोलन के लिए जमीन तैयार की और अंबेडकरवादी आंदोलनों में महिलाओं की सशक्त भागीदारी की पृष्ठभूमि भी बनाई।

उर्मिला पवार और मीनाक्षी मून द्वारा लिखी गई किताब ‘वी आल्सो मेड हिस्ट्री’ (ज़ुबान प्रेस) अंबेडकरवादी आंदोलनों में सक्रिय रही महिलाओं की गतिविधियों और उनके जीवन-वृत्त का लेखा-जोखा है। निश्चय ही इन महिलाओं ने सावित्रीबाई फुले की मुक्तिकामी विचार-परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया।

इस पुस्तक में जिन अंबेडकरवादी महिलाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में विस्तार से बताया गया है, वे हैं : रमाबाई अंबेडकर, राधाबाई कांबले, तुलसाबाई बंसोडे, अंजनीबाई देशभ्रातार, सुलोचनाबाई डोंगरे, भिक्षुणी लक्ष्मीबाई नायक, सीताबाई व गीताबाई गायकवाड, वीरेंद्रबाई तीर्थंकर, रतिबाई पुराणिक, गीताबाई पवार, मुक्ता सर्वागौड़, शांताबाई भालेराव, शांताबाई दाणी, सखूबाई मोहिते, कौसल्या बैसंतरी, बेबीताई कांबले, आदि।

सावित्रीबाई फुले को आज उनकी जयंती पर याद करते हुए इन महिलाओं को याद करना जरूरी है, जिन्होंने सावित्रीबाई की परंपरा को आगे बढ़ाया।

2. प्रद्युम्न यादव की वाल से :

सावित्री और ज्योतिबा के बारे में सोचता हूँ तो यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि कोई आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले इतनी विराट मानवीय चेतना और प्रगतिशील मूल्यों से युक्त कैसे हो सकता है. ये तो वो दौर था जब सती प्रथा जैसी कुरीतियों पर प्रतिबंध लगे मात्र 2 दशक हुए थे. अशिक्षा , बाल विवाह और विधवाओं के दुष्कर जीवन का दंश महिलाएं झेल रही थी और उनका जीवन घर की कोठरी तक ही सीमित था.

उस दौर में सावित्री ने जो निर्णय लिए और काम किये वो भारतीय समाज के लिए आज भी नज़ीर हैं. उदाहरण के लिए एक वेश्या के बच्चे को गोद लेना. सावित्री को मालूम था कि इसके क्या परिणाम होंगे फिर भी उन्होंने पूना की एक वेश्या काशीबाई की संतान को गोद लिया. उस वक्त काशीबाई को नहीं पता था कि उस बच्चे का पिता कौन है लेकिन सावित्री ने तय कर लिया था कि उस बच्चे को मां और पिता दोनों का प्रेम और नाम मिलेगा. ऐसा हुआ भी. सावित्री ने उस बच्चे का नाम यशवंत रखा और अपनी मृत्यु तक उसका पालन पोषण माँ बनकर किया. वह यशवंत की माँ भी थी और संरक्षिका व प्रेरणास्रोत भी थीं.

उन्हें इसका परिणाम भी भुगतना पड़ा. यशवंत की वजह से न सिर्फ समाज की ऊंची जाति के लोगों ने उनका बहिष्कार किया बल्कि उनके सजातीय लोगों ने भी विरोध किया. लेकिन इस बात से न सावित्री और न ही ज्योतिबा को कोई फर्क पड़ा. उन्होंने वही किया जो सही था. जो उन्हें सही लगा. हमें शायद आज भी ये बात बड़ी लगे लेकिन आज से डेढ़ सौ साल पहले के समाज में यह कितनी बड़ी बात रही होगी इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है.

1863 में ज्योतिबा और सावित्री के प्रयासों से स्थापित हुए ' बाल हत्या प्रतिबंधक गृह ' में सावित्री ही थी जो वहां आने वाली महिलाओं के सबसे करीब थीं. ज्योतिबा बाहर इस गृह में आने के लिए प्रचार प्रसार करते थे तो सावित्री यहां आने वाली महिलाओं की जच्चगी और देखभाल में मदत करती थीं. सावित्री ने सैकड़ों महिलाओं के दुख देखे , उनमें सहभागी रहीं और अपनी दशा से तंग आकर मृत्यु के लिए प्रयासरत अनेक महिलाओं को अपनाकर उन्हें पुनर्जीवन दिया. जैसा सेवाभाव सावित्री में था वैसा बाद के किसी समाज सुधारक में देखने को नहीं मिला.

एक अन्य वाकया जिसकी वजह से आज शिक्षक दिवस मनाया जाता है वह सावित्री की उदात्तता और साहस का चरम है. सावित्री का उस दौर में स्कूल में पढ़ाने जाना , परंपरावादी समाज की चूलें हिला देना था. घर के बाहर आकर सामाजिक क्षेत्र में खुलेतौर पर काम करने वाली वह पहली भारतीय महिला थीं. वह भारत की पहली महिला शिक्षक भी हैं. उस दौर में धर्मभीरु लोग किसी स्त्री का इस तरह निर्भयतापूर्वक काम करना फूटीं आंख नहीं सह पा रहे थे. क्रोध और अज्ञानता की अग्नि में जल रहे ऐसे लोगों ने सावित्री की छीछालेदर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सावित्री जब भी घर से बाहर निकलकर स्कूल जाती तो तब ऐसे लोग उन्हें रास्ते में गंदी गंदी गालियां देते , उन पर थूकते , उन्हें पथ्थर से मारते और उन पर मल फेंकते थे.

लेकिन धन्य है वह महिला , अद्भुत है उनकी चेतना जो इतना अपमान सह कर भी वह निरंतर अपना काम करती रहीं. शिक्षण में कोई बाधा न आये इसके लिए वह अपने साथ दो अतरिक्त साड़ियां ले जाती थी. जब भी लोगों द्वारा फेंके मल और गंदगी से उनके वस्त्र गंदे हो जाते तो वह उन्हें बदल लेती थीं.

इतना कुछ सहने के बावजूद उनके मुंह से कभी भी विरोधियों के लिए कटु वचन नहीं निकले. वह लोगों से हाथ जोड़कर कहती - " भाईयों , मैं तो आपकी और अपनी इन छोटी बहनों को पढ़ाने का काम कर रही हूँ. मुझे बढ़ावा देने के लिए शायद आप मुझ पर मल और पथ्थर फेंक रहे हैं. मैं यह मानती हूं की ये फूल हैं , गंदगी नहीं. आपका यह कार्य मुझे प्रेरणा देता है कि इसी तरह मेरी इन बहनों की सेवा मुझे करना चाहिए. ईश्वर आपको सुखी रखें '

सावित्री के जीवन की तरह उनका अंतिम समय भी मानवता और सेवापरायणता का चरम है. इस मामले में वह मेरे लिए मदर टेरेसा से भी ऊपर हैं. उन दिनों पूना में भयंकर महामारी फैली हुई थी. यह 1897 का दौर था. सावित्री उस समय बीमार लोगों की सेवा कर रही थीं. वह चाहती तो आसानी से महामारी वाली जगह से जा सकती थी लेकिन उन्होंने वही रहना तय किया. वो भी ऐसी स्थिति में जब ज्यादातर लोग अपने गांव से पलायन कर चुके थे. मैं अपने दिमाग में उस समय का चित्र खींचने की कोशिश करता हूं तो बरबस ही आंखें नम हो जाती हैं. आखिरी सावित्री क्या थीं ? मनुष्य या उससे भी कुछ बेहतर.

मुझे आसपास तमाम बीमार लोग दिखते हैं. उनके बीच एक बेटा और माँ दिखती है जो निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा में लगे हुए हैं. उनमें एक तड़प दिखती है कि कितने अधिक से अधिक लोगों का जीवन बचा लें. मुझे वो सावित्री दिखतीं है जो उस समय अपने डॉक्टर पुत्र यशवंत के साथ लोगों के लिए चिंतित और हैरान परेशान हैं.

अंत में यह देखकर सब बिखर जाता है कि उस महामारी में सावित्री और यशवंत लोगों की सेवा करते हुए दिवंगत हो गए. भीतर एक कसक रह जाती है उस महानायिका को थोड़े और समय तक जीवित रहना चाहिए था. न जाने कितने लोगों का भला हो जाता.

मैं सावित्री जैसी निस्वार्थ , विराट मानवीय चेतना से युक्त महिला को लेकर स्वार्थी हो जाता हूं कि उन्हें याद किया जाना चाहिए. उनका अनुसरण किया जाना चाहिए. उन्हें वो सम्मान दिया जाना चाहिए जो इतिहास ने उन्हें नहीं दिया.

फिर मैं प्रण लेता हूं कि जब तक जीवित हूं उन्हें स्मरण करता रहूंगा. अपनी पीढ़ियों तक उन्हें पहुंचाता रहूंगा. सावित्री कभी नहीं मरेंगी. हमारी स्मृतियों वो जीवित रहेंगी. उनका काम जीवित रहेगा.

आज उनके जन्म दिवस पर ये सब लिखना इसी भावना का परिणाम है. महान लोग कभी नहीं मरते हैं. महान लोग कभी मर भी नहीं सकते हैं.

सावित्री को नमन !

© डॉ शुभनीत कौशिक





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